अपने अपने दलित-आदिवासी मित्रों के E-mail, अपने विचार, सुझाव और अपने क्षेत्र के समाचार भेजने के लिए हमारे E-mail : tribalsvoice@gmail.com का उपयोग करें! हम आपके आभारी रहेंगे।

Tuesday 19 August 2014

आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी

सुभाष गाताड़े

किसी अलसुबह अगर मानवद्रोही कारनामे को अंजाम देनेवाले किसी आतंकी का मेसेज आप के मोबाइल पर पहुंचे, जिसमें उस खतरनाक आतंकी का महिमामण्डन करने की और निरपराधों को मारने की अपनी कार्रवाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश दिखाई पड़े, तो आप क्या करेंगे?और यह सिर्फ आप के साथ न हो, आप के जैसे हजारों लोगों को ऐसे मेसेज पहुंचे ?आप पास के पुलिस स्टेशन या अन्य किसी सम्बधित अधिकारियों को सूचित करेंगे कि आतंकी का महिमामण्डन करने के पीछे कौन लोग लगे हैं, इसकी पड़ताल करे।

बीती 30जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या के 66 साल पूरे होने के अवसर पर देश भर में कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा था, उस दिन गांधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे की आवाज़ में एक आडियो वाटस अप पर मोबाइल के जरिए लोगों तक पहुंचाया गया। अख़बार के मुताबिक ऐसा मैसेज उन लोगों के मोबाइल तक पहुंच चुका है, जो एक बड़ी पार्टी से ताल्लुक रखते हैं और वही लोग इसे आगे भेज रहे हैं।

मेसेज की अन्तर्वस्तु गोडसे के स्पष्टत: महिमामण्डन की दिख रही थी, जिसमें आज़ादी के आन्दोलन के कर्णधार महात्मा गांधी की हत्या जैसे इन्सान दुश्मन कार्रवाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गयी थी। इतना ही नहीं एक तो इस हत्या के पीछे जो लम्बी चौड़ी साजिश चली थी, उसे भी दफनाने का तथा इस हत्या को देश को बचाने के लिए उठाए गए कदम के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी थी।

इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि कुछ माह में ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं और देश के कई हिस्सों में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं, केन्द्रीय जांच एजेंसियों को चाहिए कि एक आतंकी को महिमामंडन करने के पीछे कौन ताकतें लगी हैं, इसकी पड़ताल करें और सच्चाई सामने लाए। यह जानना इस सम्बन्धा में भी महत्वपूर्ण है कि देश के कई हिस्सों में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले संघ के प्रचारक रहे असीमानन्द ने – जिस पर मुकदमा चल रहा है – अंग्रेजी पत्रिका ‘कारवां’ को दिए अपने साक्षात्कार में यह विस्फोटक खुलासा किया है कि उसकी इस साजिश की जानकारी संगठन के वरिष्ठतम नेता को भी थी।

निश्चित ही यह कोई पहला मौका नहीं है कि पुणे का रहनेवाला आतंकी नाथुराम विनायक गोडसे, जो महात्मा गांधी की हत्या के वक्त हिन्दु महासभा से सम्बध्द था, जिसने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से की थी और जो संघ के प्रथम सुप्रीमो हेडगेवार की यात्राओं के वक्त उनके साथ जाया करता था, उसके महिमामण्डन की कोशिशें सामने आयी हैं। महाराष्ट्र एवं पश्चिमी भारत के कई हिस्सों से 15 नवम्बर के दिन – जिस दिन नाथुराम को फांसी दी गयी थी- हर साल उसका ‘शहादत दिवस’ मनाने के समाचार मिलते रहते हैं। मुंबई एवं पुणे जैसे शहरों में तो नाथुराम गोडसे के ‘सम्मान’ में सार्वजनिक कार्यक्रम भी होते हैं। लोगों को यह भी याद होगा कि वर्ष 2006 के अप्रैल में महाराष्ट्र के नांदेड में बम बनाते मारे गए हिमांशु पानसे और राजीव राजकोंडवार के मामले की तफ्तीश के दौरान ही पुलिस को यह समाचार मिला था कि किस तरह हिन्दुत्ववादी संगठनों के वरिष्ठ नेता उनके सम्पर्क में थे और आतंकियों का यह समूह हर साल ‘नाथुराम हौतात्म्य दिन’ मनाता था। गोडसे का महिमामण्डन करते हुए ‘मी नाथुराम बोलतोय’ शीर्षक से एक नाटक का मंचन भी कई साल से हो रहा है।

स्मृतिलोप के इस समय में जबकि मुल्क की राजनीति में जबरदस्त उथलपुथल के संकेत मिल रहे हैं और दक्षिणपंथी ताकतें सर उठाती दिख रही हैं, यह जरूरी हो जाता है कि इस मसले से जुड़े तथ्य लोगों के सामने नए सिरेसे रखें जाएं तथा यह स्पष्ट किया जाए कि यह किसी सिरफिरे आतंकी की कार्रवाई नहीं थी बल्कि उसके पीछे हिन्दुत्ववादी संगठनों की साजिश थी, जिसके सरगना सावरकर थे।

हर अमनपसन्द एवं न्यायप्रिय व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि महात्मा गांधी की हत्या आजाद भारत की सबसे पहली आतंकी कार्रवाई कही जा सकती है। गांधी हत्या के महज चार दिन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबन्दी लगानेवाला आदेश जारी हुआ था -जब वल्लभभाई पटेल गृहमंत्री थे – जिसमें लिखा गया था :

संघ के सदस्यों की तरफ से अवांछित यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दिया गया है। यह देखा गया है कि देश के तमाम हिस्सों में संघ के सदस्य हिंसक कार्रवाइयों में – जिनमें आगजनी, डकैती, और हत्याएं शामिल हैं – मुब्तिला रहे हैं और वे अवैधा ढंग से हथियार एवं विस्फोटक भी जमा करते रहे हैं। वे लोगों में पर्चे बांटते देखे गए हैं, और लोगों को यह अपील करते देखे गए हैं कि वह आतंकी पध्दतियों का सहारा लें, हथियार इक्ट्ठा करें, सरकार के खिलाफ असन्तोष पैदा करे

27 फरवरी 1948 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने ख़त में -जबकि महात्मा गांधी की नाथुराम गोडसे एवं उसके हिन्दुत्ववादी आतंकी गिरोह के हाथों हुई हत्या को तीन सप्ताह हो गए थे – पटेल लिखते हैं : 

"सावरकर के अगुआईवाली हिन्दु महासभा के अतिवादी हिस्से ने ही हत्या के इस षडयंत्र को अंजाम दिया है ..जाहिर है उनकी हत्या का स्वागत संघ और हिन्दु महासभा के लोगों ने किया जो उनके चिन्तन एवं उनकी नीतियों की मुखालिफत करते थे।”

वही पटेल 18 जुलाई 1948 को हिन्दु महासभा के नेता एवं बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता एवं समर्थन से भारतीय जनसंघ की स्थापना करनेवाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखते हैं :
”..हमारी रिपोर्टें इस बात को पुष्ट करती हैं कि इन दो संगठनों की गतिविधियों के चलते खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चलते, मुल्क में एक ऐसा वातावरण बना जिसमें ऐसी त्रासदी (गांधीजी की हत्या) मुमकिन हो सकी। मेरे मन में इस बात के प्रति तनिक सन्देह नहीं कि इस षडयंत्र में हिन्दु महासभा का अतिवादी हिस्सा शामिल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियां सरकार एवं राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं। हमारे रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करते हैं कि पाबन्दी के बावजूद उनमें कमी नहीं आयी है। दरअसल जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है संघ के कार्यकर्ता अधिक दुस्साहसी हो रहे हैं और अधिकाधिक तौर पर तोडफोड/विद्रोही कार्रवाइयों में लगे हैं।
प्रश्न उठता है कि गांधी के हत्यारे अपने इस आपराधिक काम को किस तरह औचित्य प्रदान करते हैं। उनका कहना होता है कि गांधीजी ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य के विचार का समर्थन दिया और इस तरह वह पाकिस्तान के बंटवारे के जिम्मेदार थे, दूसरे, मुसलमानों का ‘अड़ियलपन’ गांधीजी की तुष्टिकरण की नीति का नतीजा था, और तीसरे, पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए आक्रमण के बावजूद, गांधीजी ने सरकार पर दबाव डालने के लिए इस बात के लिए अनशन किया था कि उसके हिस्से का 55 करोड़ रूपए वह लौटा दे।

ऐसा कोईभी व्यक्ति जो उस कालखण्ड से परिचित होगा बता सकता है कि यह सभी आरोप पूर्वाग्रहों से प्रेरित हैं और तथ्यत: गलत हैं। दरअसल, साम्प्रदायिक सद्भाव का विचार, जिसकी हिफाजत गांधी ने ताउम्र की, वह संघ, हिन्दु महासभा के हिन्दु वर्चस्ववादी विश्वदृष्टिकोण के खिलाफ पड़ता था और जबकि हिन्दुत्व ताकतों की निगाह में राष्ट्र एक नस्लीय/धार्मिक गढंत था, गांधी और बाकी राष्ट्रवादियों के लिए वह इलाकाई गढंत था या एक ऐसा इलाका था जिसमें विभिन्न समुदाय, समष्टियां साथ रहती हों।

दुनिया जानती है कि किस तरह हिन्दु अतिवादियों ने महात्मा गांधी की हत्या की योजना बनायी और किस तरह सावरकर एवं संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर को नफरत का वातावरण पैदा करने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसकी परिणति इस हत्या में हुई। सच्चाई यह है कि हिन्दुत्व अतिवादी गांधीजी से जबरदस्त नफरत करते थे, जो इस बात से भी स्पष्ट होता है कि नाथुराम गोडसे की आखरी कोशिश के पहले चार बार उन्होंने गांधी को मारने की कोशिश की थी। (गुजरात के अग्रणी गांधीवादी चुन्नीभाई वैद्य के मुताबिक हिन्दुत्व आतंकियों ने उन्हें मारने की छह बार कोशिशें कीं)।

अगर हम गहराई में जाने का प्रयास करें तो पाते हैं कि उन्हें मारने का पहला प्रयास पुणे में (25 जून 1934) को हुआ जब वह कार्पोरेशन के सभागार में भाषण देने जा रहे थे। उनकी पत्नी कस्तुरबा गांधी उनके साथ थीं। इत्तेफाक से गांधी जिस कार में जा रहे थे, उसमें कोई खराबी आ गयी और उसे पहुंचने में विलम्ब हुआ जबकि उनके काफिले में शामिल अन्य गाडियां सभास्थल पर पहुंचीं जब उन पर बम फेंका गया। इस बम विस्फोट ने कुछ पुलिसवालों एवं आम लोग घायल हुए।

महात्मा गांधी को मारने की दूसरी कोशिश में उनका भविष्य का हत्यारा नाथुराम गोडसे भी शामिल था। गांधी उस वक्त पंचगणी की यात्रा कर रहे थे, जो पुणे पास स्थित एक हिल स्टेशन है (मई 1944) जब एक चार्टर्ड बस में सवार 15-20 युवकों का जत्था वहां पहुंचा। उन्होंने गांधी के खिलाफ दिन भर प्रदर्शन किया, मगर जब गांधी ने उन्हें बात करने के लिए बुलाया वह नहीं आए। शाम के वक्त प्रार्थनासभा में हाथ में खंजर लिए नाथुराम गांधीजी की तरफ भागा, जहां उसे पकड़ लिया गया।

सितम्बर 1944 में जब जिन्ना के साथ गांधी की वार्ता शुरू हुई तब उन्हें मारने की तीसरी कोशिश हुई। जब सेवाग्राम आश्रम से निकलकर गांधी मुंबई जा रहे थे, तब नाथुराम की अगुआई में अतिवादी हिन्दु युवकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। उनका कहना था कि गांधीजी को जिन्ना के साथ वार्ता नहीं चलानी चाहिए। उस वक्त भी नाथुराम के कब्जे से एक खंजर बरामद हुआ था।

गांधीजी को मारने की चौथी कोशिश में (20 जनवरी 1948) लगभग वही समूह शामिल था जिसने अन्तत: 31 जनवरी को उनकी हत्या की। इसमें शामिल था मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, नाथुराम गोडसे और नारायण आपटे। योजना बनी थी कि महात्मा गांधी और हुसैन शहीद सुरहावर्दी पर हमला किया जाए। इस असफल प्रयास में मदनलाल पाहवा ने बिडला भवन स्थित मंच के पीछे की दीवार पर कपड़े में लपेट कर बम रखा था, जहां उन दिनों गांधी रूके थे। बम का धामाका हुआ, मगर कोई दुर्घटना नहीं हुई, और पाहवा पकड़ा गया। समूह में शामिल अन्य लोग जिन्हें बाद के कोलाहल में गांधी पर गोलियां चलानी थीं, वे अचानक डर गए और उन्होंने कुछ नहीं किया।

उन्हें मारने की आखरी कोशिश 30 जनवरी को शाम पांच बज कर 17 मिनट पर हुई जब नाथुराम गोडसे ने उन्हें सामने से आकर तीन गोलियां मारीं। उनकी हत्या में शामिल सभी पकड़े गए, उन पर मुकदमा चला और उन्हें सज़ा हुई। नाथुराम गोडसे एवं नारायण आपटे को सज़ा ए मौत दी गयी, (15 नवम्बर 1949) जबकि अन्य को उमर कैद की सज़ा हुई। इस बात को नोट किया जाना चाहिए कि जवाहरलाल नेहरू तथा गांधी की दो सन्तानों का कहना था कि वे सभी हिन्दुत्ववादी नेताओं के मोहरे मात्रा हैं और उन्होंने सज़ा ए मौत को माफ करने की मांग की। उनका मानना था कि इन हत्यारों को फांसी देना मतलब गांधीजी की विरासत का असम्मान करना होगा जो फांसी की सज़ा के खिलाफ थे। ..

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ नाथुराम गोडसे के सम्बन्धा मसला अभी भी सुलझाया नहीं जा सका है। दरअसल महात्मा गांधी की हत्या की चर्चा जब भी छिड़ती है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े आनुषंगिक संगठन गोडसे और उसके आतंकी गिरोह के बारे में बहुत घालमेलवाला रूख अख्तियार करते हैं। एक तरफ वह इस बात की भी कोशिश करते हैं कि यह दिखाएं कि गांधीजी की हत्या के वक्त उनमें से किसी का संघ से कोई ताल्लुक नहीं था। साथ ही साथ वह इस बात को भी रेखांकित करना नहीं भूलते कि किस तरह गांधीजी के कदमों ने लोगों में निराशा पैदा की थी।…..

नाथुराम गोडसे से करीबी से जुड़े लोग, जो खुद गांधीजी की हत्या की साजिश में शामिल थे, वे इस मसले पर अलग ढंग से सोचते हैं। अपनी किताब ‘Why I Assassinated Mahatma Gandhi (मैंने महात्मा गांधी को क्यों मारा, 1993)’ नाथुराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे लिखते हैं : ”उसने (नाथुराम) ने अपने बयान में कहा था कि उसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को छोड़ा था। उसने यह बात इस वजह से कही क्योंकि गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी की हत्या के बाद बहुत परेशानी में थे। मगर यह बात सही है कि उसने संघ नहीं छोड़ा था।”.. अंग्रेजी पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ को दिए साक्षात्कार में (जनवरी 28,1994, अरविन्द राजगोपाल) गोपाल गोडसे ने वही बात दोहरायी :

प्रश्न : क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे थे

उत्तर : सभी भाई संघ में थे। नाथुराम, दत्तात्रोय, मैं और गोविन्द। आप कह सकते हैं कि हम अपने घर के बजाय संघ में ही पले बढ़े। संघ हमारे लिए दूसरे परिवार की तरह था।

प्रश्न : नाथुराम संघ में ही था ? उसने संघ को नहीं छोड़ा था ?

उत्तर : नाथुराम संघ का बौध्दिक कार्यवाह बना था। उसने अपने बयान में कहा था कि उसने संघ छोड़ा था। उसने यह बात इस वजह से कही क्योंकि गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी की हत्या के बाद बहुत परेशानी में थे। उसने कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नहीं छोड़ा।.

यह अकारण नहीं कि अपनी किताब ‘गांधी हत्या और मैं’ (सूर्यभारती प्रकाशन, दिल्ली) की शुरूआत में गोपाल गोडसे बताते हैं कि किस तरह फांसी जाने के पहले उन्होंने जहां एक तरफ ‘अखण्ड भारत’ तथा ‘वन्दे मातरम्!’ का नारा लगाया तथा मातृभूमि के नाम पर ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे..’गाया। याद रखें कि यही वह गीत है जो संघ की शाखाओं में प्रमुखता से गाया जाता है।

इस पूरी साजिश में सावरकर की भूमिका पर बाद में विधिवत रौशनी पड़ी। याद रहे गांधी हत्या को लेकर चले मुकदमे में उन्हें सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया था।

मालूम हो कि गांधी हत्या के सोलह साल बाद पुणे में हत्या में शामिल लोगों की रिहाई की खुशी मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। 12 नवम्बर 1964 को आयोजित इस कार्यक्रम में शामिल कुछ वक्ताओं ने कहा कि उन्हें इस हत्या की पहले से जानकारी थी। अख़बार में इस ख़बर के प्रकाशित होने पर जबरदस्त हंगामा मचा और फिर 29 सांसदों के आग्रह तथा जनमत के दबाव के मद्देनज़र तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने एक सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जीवनलाल कपूर की अधयक्षता में एक कमीशन गठित किया।

कपूर आयोग ने हत्या में सावरकर की भूमिका पर नए सिरेसे निगाह डाली। आयोग के सामने सावरकर दो सहयोगी अप्पा कासार – उनका बाडीगार्ड और गजानन विष्णु दामले, उनका सेक्रेटरी भी पेश हुए, जो मूल मुकदमे में बुलाए नहीं गए थे। कासार ने कपूर आयोग को बताया कि कि किस तरह हत्या के चन्द रोज पहले आतंकी गोडसे एवं दामले सावरकर से आकर मिले थे। बिदाई के वक्त सावरकर ने उन्हें एक तरह से आशीर्वाद देते हुए कहा था कि ‘यशस्वी होउन या’ अर्थात कामयाब होकर लौटो। दामले ने बताया कि गोडसे और आपटे को सावरकर के यहा जनवरी मधय में देखा था। न्यायमूति कपूर का निष्कर्ष था ” इन तमाम तथ्यों के मद्देनजर यही बात प्रमाणित होती है कि सावरकर एवं उनके समूह ने ही गांधी हत्या की साजिश रची।’

विडम्बना यही कही जाएगी कि इसके पहले ही सावरकर की मृत्यु हुई थी।(हमसमवेत)

स्त्रोत : आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी, By AAWAZ-E-HIND.IN।। ONLINE NEWS & VIEWS CHANNEL - Sat Feb 22, 5:28 pm

मनुवादी मोहरा अन्ना हजारे (देशद्रोही)


अन्ना एंड पार्टी (मशहूर नौटंकी, महाराष्ट्र वालों) का इरादा मनुवाद -ब्राहमणवाद को मजबूत करने का था...जाहिर सी बात है कि जो व्यवस्था किसी व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से संपन्न बनाये रखे, वह व्यक्ति उस व्यवस्था को त्यागना नहीं चाहेगा...मनुवाद या ब्राहमणवाद एक ऐसी ही व्यवस्था है, जिसमें चंद मुट्ठी भर लोग सदियों से लाभान्वित हो रहे हैं...बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के कठोर एवं निरंतर संघर्ष ने बहुजनों को उनका हक़ दिलाने का सफल प्रयास किया...बाबा साहेब के आदर्शों को दलितों ने आगे बढाया और समाज में जागरूकता फैलाई...इसके चलते हाल ही के दशक में शूद्रों (OBC) को भी ब्राहमणवाद कि नीतियाँ समझ आने लगीं और वे साथ जुड़ने लगे...एक तरफ दलितों-शूद्रों की राजनैतिक दावेदारी बढ़ने लगी...तो दूसरी तरफ कई सभाएं और रैलियां होने लगीं, जिनमें दलित (SC,ST), शूद्र (OBC), बौद्ध, मुस्लिम्स ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया...एक बात स्पष्ट होती जा रही थी कि आने वाले समय में ये सभी एक-जुट होकर चुनाव लड़ेंगे...चूँकि इनकी तादात इतनी अधिक है कि ये लोग खुद की सरकार बनाकर, ब्राहमणवाद का खात्मा कर सकते हैं...यह बात सवर्ण भांप चुके थे...सवर्ण समझ गये थे की सत्ता कभी भी उनके हाथों से छिन सकती है...अब सवर्ण एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे, जो की ब्राहमणवाद को बनाये रखे...अन्ना को चेहरा बनाकर, खेल चुरू हो गया...अन्ना एंड पार्टी, ब्राहमणवादी व्यवस्था ले ही आते, जिसमें बहुजनों को कोई भी प्रतिनिधित्व या आरक्षण नहीं था...किन्तु फिर से दलित, बहुजनों की ढाल बन कर सामने खड़ा हो गया, और ख़ुशी इस बात की है कि बहुजनों ने पूरा साथ दिया...अब जो भी लोकपाल आएगा, वह अन्ना एण्ड पार्टी के ब्राहमणवादी लोकपाल से भिन्न लोकपाल होगा, क्यूंकि अब इसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व तय हो गया है और सवर्णों के निहित स्वार्थ धरे के धरे रह गये हैं...!

निष्कर्ष :- सवर्णों का ब्राहमणवादी लोकपाल अपने आप में संविधान के चारों स्तंभों को अपने नियंत्रण में लिए हुए, एक संप्रभु था !
1. अन्ना एण्ड पार्टी (सवर्णों) के ब्राहमणवादी लोकपाल में सीधे तौर पर यह व्यवस्था थी की चाहे सरकार कोई भी हो, उसे लोकपाल से डरकर रहना होगा, लोकपाल जब चाहे प्रधानमंत्री एवं सांसदों को जांच के शिकंजे में कस लेगा !
2. न्यायपालिका लोकपाल के अधीन होने से लोकपाल न्यायिक कार्यों में हस्तक्षेप कर सकेगा और न्याय-प्रक्रिया में लोकपाल की हिस्सेदारी तय हो जाएगी !
3. लोकपाल की खुद की एक जांच एजेंसी होगी, जिसके पास लाखों कर्मचारी होंगे, जिससे की लोकपाल खुद में ही एक सशक्त प्रशासन होगा, जो कि बाकी के सभी प्रशासनिक क्षेत्रों (विभागों) को सीधे तौर पर अपने नियंत्रण में रखेगा !
4. मीडिया, व्यापार एवं एनजीओ लोकपाल से बाहर रहेंगे, वैसे भी इन क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है...अतः यहाँ बहुजनों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कमजोर अथवा न्यून है...इस प्रतिनिधित्व को मजबूत करने के लिए इन क्षेत्रों में भी आरक्षण अति-आवश्यक है, जिसकी वर्तमान में प्रबल मांग उठ रही है !

कुल मिलाकर कहने का मतलब है कि...अब अगर दलित-शूद्र-बौध-मुस्लिम एक होकर चुनाव जीत लेते हैं और अपनी सरकार बना लेते हैं, तो भी सवर्णों का ही वर्चस्व कायम होने वाला था...क्यूंकि इनके लोकपाल में बहुजनों के लिए आरक्षण या प्रतिनिधित्व जैसी कोई बात नहीं थी, ये पूर्व की ही तरह एकछत्र राज करते...!


ब्राहमणवादी लोकपाल की मुख्य मांगे :-
1. सरकार, "प्रधान मंत्री" को लोकपाल के दायरे में लाये !
2. सरकार, "न्यायपालिका" को लोकपाल के दायरे में लाए !
3. सरकार, "सांसदों" को लोकपाल के दायरे में लाये !
4. सरकार, अपना सरकारी-बिल वापस ले !
5. तीस अगस्त (30 अगस्त) तक "अन्ना का जन-लोकपाल-बिल" संसद में पास होना ही चाहिए !
6. बिल को "स्टैंडिंग-कमेटी" में नहीं भेजा जाए !
7. लोकपाल की नियुक्ति-कमेटी में "सरकारी-हस्तक्षेप" न्यूनतम हो !
8. जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा नियम 184 के तहत करा कर उसके पक्ष और विपक्ष में बाकायदा वोटिंग करायी जाए !

आइये देखते हैं ब्राहमणवादी लोकपाल से जुड़े कुछ पहलू :-
1. यह मूवमेंट जिस समय चलाया गया तब, सरकार के गिरने की पूरी संभावनाएं थी...अन्ना एंड पार्टी (सवर्ण), जो लोकपाल (ऑंबडज़्मन) लाना चाहते हैं, वो प्रासंगिक ही नहीं है...मात्र राजनीतिक षड्यंत्र है...कुछ बड़ा गड़बड़-घोटाला है, जिसकी तरफ से करोड़ो लोगों का ध्यान हटाया जा रहा है...वर्तमान मुद्दे...कॉमन वेल्थ, 2 G स्पेक्ट्रम, टाटा-राडिया टेप-कांड, परमाणु दायित्व...इत्यादि !
2. वर्तमान सरकार ने कई औधोगिक घरानों के फोन, टेप करवाए थे...जिसमें टाटा-राडीया फोन-टेप-कांड काफ़ी चर्चा में रहा...अब अन्ना एण्ड कम्पनी (कॉर्पोरेट जगत एवं सिविल सोसाइटी) लोकपाल को फोन टेपिंग की शक्ति देने में लगे हैं...फोन टेप होने से एक तो ब्लैक-मेलिंग का ख़तरा और दूसरा ख़ुफ़िया खबरों एवं सूचनाओं के लीक होने या दुश्मनों को बेचे जाने का डर...!
3. अन्ना एण्ड कंपनी (कॉर्पोरेट जगत एवं सिविल सोसाइटी) के लोग जो कि NGOs चलाते हैं...भारत की ग़रीबी एवं लाचारी को दूर करने के लिए मदद के रूप में मिले विदेशी धन तक को हड़प जाते हैं...और ये तो सभी जानते हैं कि NGOs के मार्फत काले धन को सफेद किए जाने का रिवाज़ है...! अब सवर्ण चाहते हैं कि गवर्नमेंट फॅंडेड NGOs ही लोकपाल के दायरे में हो...भला ऐसा क्यूँ...??? जबकि सब जानते हैं कि NGOs में कितना भ्रष्टाचार है !
4. अन्ना एण्ड कंपनी (सवर्ण), व्यापार जगत और मीडिया जगत को भी लोकपाल से बाहर रखना चाहती है !
5. अन्ना एक कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति है जो की कानून की बारीकियों एवं पेचीदगियों को नहीं जानता और तो और किसी भी कानून या विधेयक या ड्राफ्टिंग की तकनिकी पहलुओं को भी नहीं जानता...और हम यह भी जानते हैं हैं की फ़ौज की नौकरी करने वाले व्यक्ति को इस प्रकार ट्रेनिंग दी जाती है की उसका IQ स्तर निम्न हो जाता है...अतः अन्ना सिर्फ और सिर्फ एक मोहरा है...इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं ! लेखक : Satyendra Humanist 
स्त्रोत : आफ़ताब फाजिल ब्लॉग, 26.12.2011

जाति.धर्म का मनुवादी तराजू-शिव बालक मिश्र प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन!

जाति.धर्म का मनुवादी तराजू

आधुनिक विज्ञान के युग में हम गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार या आतंकवाद के अध्ययन के लिए घिसे-पिटे मनुवादी तराजू पर ही निर्भर हैं। 

आशीष नन्दी जो एक साहित्यकार और समाजसेवी हैंए उन्होंने जयपुर के साहित्य सम्मेलन में विद्वानों के बीच में कह दिया कि अनुसूचित और पिछड़ी जातियों में अधिक भ्रष्टाचार है। मुझे नहीं मालूम कि उनके पास ऐसा कहने का कोई आधारए कोई आंकड़े हैं या नहींए उन्होंने कोई सर्वेक्षण अथवा अध्ययन किया है अथवा नहीं। यदि नहीं, तो यह बात किसी बुद्धिजीवी के मुंह से नहीं निकलनी चाहिए थी और देश के बुद्धिजीवियों को बोलने की आजादी के नाम पर उनका समर्थन नहीं करना चाहिए। उन्होंने माफी मांगकर इस अध्याय को समाप्त करने की कोशिश की थी, परंतु विवाद थमता नहीं दिखता।
शिव बालक मिश्र
प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में सामाजिक आंकलन के लिए केवल जाति या फिर धर्म का ही तराजू प्रचलित है। गरीबीए अशिक्षा, पिछड़ापन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद नापने के लिए जाति-धर्म का घिसा पिटा मनुवादी तराजू ही सरकार और समाज द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यदि आशीष नन्दी भ्रष्टाचार को और रामविलास पासवान गरीबी और पिछड़ेपन को जाति के तराजू से नापते हैं या दिग्विजय सिंह आतंकवाद को धर्म के तराजू पर तौलते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सच यह है कि दूसरा तराजू उनके पास है ही नहीं।

सरकारी सोच पहले ही इस निर्णय पर पहुंच चुकी है कि अनुसूचित और जनजातियां सबसे गरीब हैं। इसके बावजूद उनके बीच से एक से बढ़कर एक विद्वान, पराक्रमी और शूरवीर निकले हैं जिनकी जानकारी अब बनवाए गए स्मारकों के माध्यम से हमें हो रही है। हमारे राजनेताओं को सामाजिक अध्ययन के लिए महर्षि मनु द्वारा बनाए गए जाति आधारित मापनी के बाहर कुछ नहीं दिखाई देता। अशिक्षाए गरीबी और पिछड़ेपन का अध्ययन करते समय वे भूल जाते हैं कि गरीबीए अमीरी और पिछड़ापन स्थायी नहीं होतेए सुदामा हर जाति और धर्म में पाए जाते हैं।

केवल सरकार ही नहींए बल्कि मंडल कमीशन ने भी पाया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के अतिरिक्त अन्य कुछ जातियां हैं जो पिछड़ी हैं। पैमाना जाति का ही रहा और अन्य पिछड़ी जातियों को जाति आधारित सुविधाएं देना आरंभ हो गया। अनेकों जातियां आंदोलन करने लगीं कि हमारी जाति भी पिछड़ी है, हमें भी आरक्षण चाहिए। जाति आधारित सम्मेलन होने लगेए चुनाव के लिए जाति आधारित टिकट मिलने लगे, इसी आधार पर मंत्री और अधिकारी बनने लगे। कितने नादान हैं ये लोग जो इस रास्ते पर चलकर जातिभेद मिटाना चाहते हैं। कम से कम आशीष नन्दी को यह भूल तो नहीं करनी चाहिए थी। यदि वह बुद्धिजीवी हैं तो उन्हें जाति से हटकर कोई सेक्युलर पैमाना ढूंढऩा ही चाहिए था।

जाति के अलावा जो दूसरा पैमाना खोजा गया वह तो और भी घातक नजर आता है। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट आई जिसने बताया कि देश का मुस्लिम समाज तो अनुसूचित लोगों से भी पिछड़ा है। इस बात से कौन इनकार करेगा कि इस्लाम धर्म के मानने वालों ने भारत पर 1000 साल तक हुकूमत की है, कोई उन्हें शिक्षा और नौकरी से वंचित नहीं कर सकता था जिस प्रकार दलितों को किया गया था। मुस्लिम समाज क्योंए कब और कैसे पिछड़ गया? फि र से धर्म आधारित बंटवारा आरंभ हो गया। बात यहीं पर रुकी नहीं।

हमारे देश के गृहमंत्री ने कह दिया कि हिन्दू आतंकवाद बढ़़ रहा है अर्थात आतंकवाद को भी धर्म और जाति के तराजू से ही तौलना होगा। कुछ लोगों ने कहा आतंकवाद भगवा रंग का होता है। इसके पहले इस्लामिक आतंकवाद की भी बातें होती रही हैं। हम अपने को सेक्युलर कहते हुए नहीं थकते परन्तु गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन और आतंकवाद यहां तक कि भ्रष्टाचार तक को नापने के लिए सेक्युलर पैमाना नहीं ढूंढ पाते, वहीं पुराने मनु के बनाए तराजू पर सब कुछ तौलना पड़ता है।

जाति और धर्म का तराजू गाँव और शहर दोनों में एक समान चलता है। गाँव की पंचायतों के चुनाव जातीय आधार पर होते हैं इसलिए हमारा समाज जातीय आधार पर लामबंद होता जा रहा है। जातियों के बीच आज जो तनाव है वह गुलाम भारत में भी नहीं था। अब जातियों के आधार पर सम्मेलन होते हैं और जातीय अभिमान जगाते हुए नारे लगते हैं, आन्दोलन होते हैं। ऐसे में आशीष नन्दी जैसे लोगों को युगों से चली आ रही जातियां ही दिखाई देंगी। परन्तु वैज्ञानिक आधार पर किया गया अध्ययन तो ऑब्जेक्टिव (तथ्यात्मक)) और क्वांटीफाइड (गणनाधारित) होना चाहिए, यह कोई आस्था का विषय नहीं है।

पिछड़ापनए गरीबी और अशिक्षा का सीधा संबन्ध किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों और सुविधाओं से होता है। सुविधाएं मिलने पर सभी वर्गों के लोग शांति से विकास करते हैं। भ्रष्टाचार को जातियों से और आतंकवाद को धर्मों से जोडऩा ठीक नहीं। वास्तव में जाति और धर्म के आधार पर आंकड़े एकत्र करने के बजाय क्षेत्रों को इकाई मानकर अध्ययन होने चाहिए। जाति और धर्म से ध्यान हटकर क्षेत्रीय विकास पर चला जाएगा और यह जातीय संघर्ष और धार्मिक उन्माद से बचने का एक तरीका हो सकता है। स्त्रोत : -शिव बालक मिश्र, प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन। ०५-०२-१३

Sunday 10 August 2014

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं

विश्‍व आदिवासी दिवस-मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक हैं

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

‘‘9 अगस्त, 2014 को पूरे विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस मनाया गया। यदि इस अवसर पर कोई मौन रहा तो वो थी हिन्दुओं की तथाकथत संरक्षक विचारधारा की पोषक भारतीय जनता पार्टी की भारत सरकार, जिसकी ओर से इस असर पर एक शब्द भी आदिवासियों के उत्थान के लिये या आदिवासियों के बदतर हालातों के बारे में नहीं कहा गया। बल्कि भाजपा अपने राष्ट्रीय आयोजन के माफर्र्त देश को गुमराह करने में मशगूल दिखी। इससे एक बार फिर से यह बात सच साबित हो गयी कि हिन्दूवादी ताकतें, जिन पर आर्यों और मनुवादियों का शिकंजा कसा हुआ है, वे आदिवासियों को आदिवासी तक मानने को ही तैयार नहीं हैं। बल्कि इसके ठीक विपरीत मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आर्यों को ही इस देश के मूल निवासी सिद्ध करने में लगी हुई हैं और भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासियों को वनवासी कहकर नष्ट करने का सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा है।’’


विश्‍व में विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर यह सारांश भारत के विभिन्न राज्यों के आदिवासियों के आक्रोश और विचारों का देखने को मिला है। जो विभिन्न माध्यमों से 09 अगस्त, 2014 को आयोजनों, सभाओं और संदेशों के मार्फ़त विश्‍व आदिवासी दिवस को प्रकट हुआ है।


इसके अलावा अन्तरजाल पर मोबाइल के मार्फत तकनीक का अब आदिवासी भी उपयोग करना सीख रहा है, जहॉं पर मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें पूरी तरह से हावी हैं और वो देश और समाज को बरगाले में पीछे नहीं हैं। ये अहसास अब अनार्यों को भी हो रहा है। इस बात का जवाब भारत के विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न कारणों से फैले राजस्थान और मध्य प्रदेश के आदिवासियों ने विश्‍व आदिवासी दिवस पर देने का प्रयास किया है। इस दौरान आदिवासियों की ओर से विश्‍व आदिवासी दिवस तो हजारों स्थानों पर चर्चा, बैठक, रैली, सभा, गोष्ठी आदि के जरिये बढचढकर मनाया तो गया ही, इसके साथ-साथ जागरूक आदिवासियों की और से जो सन्देश आपस में प्रसारित किये गये, वे इस देश और इस देश के मूल निवासी आदिवासियों तथा अनार्यों के आने वाले कल के बारे में बहुत कुछ बयां करते हैं। यहॉं ऐसे ही कुछ संदेशों का सारांश और भावार्थ प्रस्तुत हैं :-


1. ‘‘पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी है।’’ : यह एक विचारधारा है, जिसके अनुसार हम जिस समाज के कर्जदार हैं, उसके प्रति हमारी कुछ नैतिक जिम्मेदारी है। जिसका निर्वाह करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का अनिवार्य कर्त्तव्य है। यह विचारधारा किसी संगठन की मोहताज नहीं है। हम में से कोई भी किसी भी संगठन से जुड़ा हो पर हमारा प्रथम कर्त्तव्य है कि भारत के असली मालिक और यहॉं के मूल निवासी आदिवासी जो आर्यों की नजर में अनार्य हैं, वे सब मिलकर आपास में एक दूसरे की मदद और सहयोग करें। जिसकी शुरुआत हम इस ग्रुप से जुड़े लोगों का सहयोग करके कर सकते हैं। पे बेक टू सोसायटी ग्रुप में अगर किसी भी सदस्य को परेशानी हो या समाज के किसी भी सदस्य की परेशानी का पता चले तो सभी उसका तत्काल सहयोग करें। सहयोग की ये भावना ही हम सभी को एक सूत्र में जोड़ेगी और हमारे आदिवासी प्रेम को प्रमाणित करेगी। सभी आदिवासी चाहे वो किसी भी जाति के हो या किसी भी राज्य में रहते हों, हम सभी  एक दूसरे के सहयोग की कसम खाते हैं। सभी भाइयों से अनुरोध है की वो सभी अपनी-अपनी जगह विश्‍व आदिवासी दिवस को "पे बेक टू सोसायटी-एक सामाजिक जिम्मेदारी" के नाम से अपने मित्र सगे सम्बन्धी और मिलने वाले सभी लोगों के साथ हर्षोल्लास के साथ अपने घरों पर दीप जलाकर मनायें और उसकी फोटो एक दूसरे को भेजें तथा आदिवासी समाज के विकास और एकता पर चर्चा करें। आज का दिन हम सभी के आने वाले भविष्य के लिए ऐतिहासिक दिन होने वाला है। हम सभी का आपसी सहयोग और कड़ा परिश्रम आदिवासी समाज तथा देश की एकता के लिए मिसाल बने। जय अदिवासी एकता।

2. आदिवासी युवा शक्ति का आह्वान : ‘‘वक्त आने दे बता देंगे, तुझे ऐ आसमां...हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे दिल में है।’’ विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर आर्यों के वंशज शोषकों को ज्ञात हो जाना चाहिये कि भारत का मूल निवासी अब जाग गया है। अब हम गॉंव-गॉंव ढाणी-ढाणी घूम-घूम कर लोगों को इस बात को बतायेंगे कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हिन्दुत्व के नाम पर आदिवासियों को और अनार्यों को किस प्रकार से आर्यों की गुलाम बनाये रखने के लिये काम कर रही हैं? हम प्रतिज्ञा करते हैं कि इस देश में मनुवाद अधिक दिन तक चलने वाला नहीं है। इस देश को आर्यों के चंगुल और मनुवाद की मानसिक गुलामी से मुक्त करवाना ही होगा। इस आह्वान को जमीनी स्तर पर प्रमाणित करने वाले आयोजन जैसे सभा, रैली आदि भी देशभर में देखने को मिले।  

3. जयस संगठन का आह्वान : सभी साथियों को विश्‍व आदिवासी दिवस की बहुत सारी शुभकामनावों के साथ आज 9 अगस्त को जयस घोषणा करता है की जो भी आदिवासिओं के जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ आदिवासियों की संस्कृति के साथ खिलावाड़ करेगा जयस (मध्य प्रदेश से संचालित संगठन) उनके खिलाफ खुली लड़ाई लड़ेगा और आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावो में उन सभी राजनैतिक पार्टियों का खुला विरोध करेगा। जिनकी नीतियां आदिवासियों के हितों के खिलाफ बनाई जा रही हैं। जिनकी नीतिओं में आदिवासी बच्चों को भूख और कुपोषण से मरने को मजबूर किया जा रहा है। आज जयस घोषणा करता है कि देश के उन सभी आदिवासी जनप्रतिनिधियों का भी खुल्लम खुल्ला विरोध करेगा जो विधायक और सांसद बनने के बाद पूरे पांच साल तक आदिवासी मुद्दों पर चुप रहकर  अपनी अपनी राजनैतिक पार्टियों की गुलामी करते हैं। जयस देश के सभी आदिवासी युवाओं से अनुरोध करता है कि आप किसी भी राजनैतिक पार्टी का समर्थन करने की बजाय आदिवासी समुदाय के उन पढे-लिखे आदिवासी युवाओं को चुनकर विधानसभा और लोकसभा में भेजें जो आदिवासिओं के संवैधानिक अधिकारों के जानकार होने के साथ साथ संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाले हों। दोस्तों यही बदलाव की सच्ची शुरुआत है और इसके लिए हम आप सभी को मिलकर लड़ना है, तभी हम यह लड़ाई जीत पाएंगे।



4. आरक्षण भीख नही है : जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की रिपोर्ट से भी ये साबित हो चुका है कि भारत के असली उतराधिकारी आठ फीसदी आदिवासी ही हैं तो फिर आरक्षण पर सवाल उठाने वाले षड़यंत्रकारी मनुवादी लोगों को खुद की गिरवान में झांकना चाहिये कि वो कितने बड़े गुनेहगारों के वंशज है। जिन्होंने देश के मूल निवासियों को इन बदतर हालातों में पहुंचा दिया है। इस बात को एक उदाहरण के जरिये समझ सकते हैं कि-कोई आपके पास आपके मकान में किराये से रहने के लिए आता है और आप उसे मकान किराया पर दे देते है, लेकिन वो आपके मकान पर कब्जा कर लेता है, आप मकान खाली कराने को प्रयास करते हैं तो किरायेदार मकान मालिक को उसके ही मकान के 10 कमरों में से एक कमरा रहने को दे
देता है। मकान मालिक इतना प्रताड़ित आतंकित किया जाता है कि सब कुछ भूलकर उस एक कमरे में जीवन बिताने को मजबूर हो जाता है, लेकिन मकान पर जबरन काबिज आपराधिक प्रवृत्ति के लोग, मकान के मालिक को उस एक कमरे में से भी बेदखल करके बाहर निकालने के षड़यंत्र लगातार रचते रहते हैं। क्या यह न्याय है??????? आज इस देश में हमारे साथ यही नहीं हो रहा है? जिस देश की आदिवासियों का शतप्रतिशत हक था, उस हक को साढे सात फीसदी पर सीमित कर दिया गया और अब उसको भी छीने जाने के नये-नये कुचक्र चले जा रहे हैं। इस उदाहरण से कोई भी समझ सकता है कि सम्पूर्ण मकान अर्थात् पूरा भारत देश हमारा है, जिसमें आर्य लोग आकर ऐसे घुसे कि पूरे देश पर ही कब्जा कर लिया और हमारे सभी हकों छीनकर उन पर काबिज हो हो गये। एक कमरा अर्थात् जो संवैधानिक आरक्षण हमें डॉ. अम्बेड़कर के साथ गॉंधी द्वारा किये गए के धोखे के बाद दिया गया, अब उस आरक्षण को भी हटाने की मुहिम अन्य मूल आरक्षित वर्गों के साथ-साथ आदिवासियों के विरुद्ध भी तेजी से चलाई जा रही है। यह कितनी मनमानी और कितनी अन्याय पूर्ण बात है, इसे कोई भी इंसाफ पसन्द व्यक्ति आसनी से समझकर महसूस कर सकता है। इस प्रकार मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें आदिवासियों को उनके बचे कुचे हकों से भी वंचित करने जा रही हैं। हमें इसका साहसपूर्वक सामना करना होगा। अन्यथा मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें हमें कुचल देंगी, हमें नेस्तनाबूद कर देंगी। क्योंकि संविधान द्वारा बनाये गये सभी निकायों पर इनका एक छत्र कब्जा है। इसे हटाने के लिये सभी अनार्य जिनकी आबादी 90 फीसदी से अधिक है को एकजुट और संगठित होना होगा।



5. जयपुर में संयुक्त जनजाति संस्थान की सभा : इस अवसर पर अनुसूचित जनजाति संयुक्त संस्थान जयपर की सभा में आदिवासियों के साथ किये जा रहे भेदभाव के प्रति आक्रोश व्यक्त करने के साथ-साथ, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव व यूनिसेफ के महानिदेशक के संदेशों को बैठक में पढकर सुनाया गया। इन संदेशों में आदिवासियों के हितों के लिए दिए गए सुझावोंं के क्रियान्वयन के लिए वृहद रूप रेखा तैयार की गई। जिसमें मुख्य रूप से यह संकल्प लिया गया कि राज्य के सभी आदिवासी एकजुट होकर अपने हितों की रक्षा के लिये आवश्यक कदम उठायेंगे। सरकार द्वारा फिर भी उदासीनता बरती गयी तो संस्थान को आन्दोलनात्मक कदम उठाने को मजबूर होना पड़ेगा।


6. निराशा भी दिखी : मोबाइलों पर देखने को मिला कि दोस्तों नेट, मोबाइल, फेसबुक और व्हाट्सअप पर कई सन्देश डालने के बाद भी सभी आदिवासी युवा उनके प्रचार-प्रसार करने में आगे नहीं आ रहा है। विश्‍व आदिवासी दिवस के मौके पर फालतू बातें डिस्कस करने की बजाय अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में चर्चा करें। ताकि आदिवासी समुदाय के पढेे लिखे लोगों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता आये। लेकिन जयादातर पढेे लिखे आदिवासी युवा फालतू बातें करने में और भेड़ चाल चलने में आगे रहते हैं, जबकि अपने आदिवासी समुदाय की बात करने में उनको शर्म आती है जो कि आदिवासी समुदाय के अस्तित्व के लिए ठीक नहीं है। ऐसे लोगों को आदिवासियों की मूल जागरूक धारा के साथ जोड़ने के सन्देश भी जारी किये गए। 

7. दीप, सभा और हर्षोल्लास के साथ मनाया गया आदिवासी दिवस : राजस्थान और मध्य प्रदेश सहित देश के तकरीबन सभी आदिवासी बहुल राज्यों में और जहां-जहां भी आदिवासी वर्ग के लोग किसी भी वजह से निवास करते हैं, उन सभी ने विश्‍व आदिवासी दिवस को व्यक्तिगत रूप से अपने-अपने घरों में दीप जलाकर और बैठक व सभाओं में आपसी चर्चा करके हर्षोल्लास के साथ मनाया। पढेलिखे आदिवासियों ने वाटसेप, मेल और फेसबुक के जरिये भी विश्‍व आदिवासी दिवस की शुभकामनाएँ एक-दूसरे को ज्ञापित की। जिसे प्रस्तुत फोटोग्राफ से बखूबी समझा जा सकता है। यह अपने आप में आदिवासियों में तकनीक के इस्तेमाल के जरिये एक बड़ा बदलाव देखा जा सकता है।


8. हम हिन्दू नहीं, हम आदिवासी हैं, धार्मिक कोड की मांग : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के अनेक समूहों की ओर से इस बात को भी ताकत से उठाया गया कि आदिवासी हिन्दू नहीं है, बल्कि मनुवादी-आर्यों द्वारा उसे जबरन हिन्दू बनाये रखने के अनैतिक प्रयास और षड़यंत्र किये जाते रहते हैं। आदिवासियों को अलग से आदिवासी धर्म के रूप में धार्मिंक कोड प्रदान किये जाने की आवाज भी उठायी गयी। जिसका देश के अनेक राज्यों के आदिवासियों की ओर से पुरजोर समर्थन किया गया।


9. आदिवासियों में सभी सरकारों के प्रति आक्रोश : सारे देश के आदिवासियों में इस बात को लेकर गहरा आक्रोश और गुस्सा देखा गया कि भारत की केन्द्र सरकार सहित तकरीबन सभी राज्य सरकारों ने विश्‍व आदिवासी दिवस का सरकारी स्तर पर आयोजन नहीं किया और इस दिन की कोई परवाह नहीं की और सभी सरकारों की ओर से इस प्रकार से आदिवासियों को सरेआम अपमानित करने का प्रयास किया गया। जो आदिवासियों के बीच गहरी चिन्ता का विषय बन गया है। आदिवासियों की परवाह करने के बजाय सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने राष्ट्रीय जलसे के आयोजन में मशगूल रही। भाजपा सहित प्रधानमंत्री या किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने विश्व आदिवासी दिवस के दिन आदिवासियों के हिट में कोई कदम नहीं उठाया।  इससे आदिवासियों को इस बात का अहसास हो गया की उनकी औकात राजनैतिक दलों की नजर में वोट बैंक के आलावा कुछ भी नहीं है। आदिवासियों ने इस मौके पर तय किया है कि हमें हमारे सच्चे नेतृत्व तथा समर्पित को आगे लाना होगा और आदिवासियों की राजनैतिक ताकत को दलितों तथा अन्य कमजोर अनार्य जातियों के साथ मिलकर दिखाना होगा। 

 10. मनुवादी-आर्य शुभचिन्तक नहीं, शोषक और दुश्मन हैं : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर आदिवासियों के सभी समूहों में यह एक बात समान रूप से सामने आयी है कि आदिवासी जो इस देश का असली मालिक है, उसे इस अब बात का अहसास होने लगा है कि मनुवादी-आर्यों द्वारा शासित हिन्दूवादी ताकतें उनकी मित्र या शुभचिन्तक नहीं, बल्कि उनकी असली दुश्मन और शोषक हैं। जिनका आम आदिवासियों और अनार्यों के पर्दाफाश किया जाना समय की मांग है। जिसके लिये सभी उम्र के आदिवासी समूहों को जागरूक किये जाने की सख्त जरूरत है। इसके लिये पे-बैक टू सोसायटी ग्रुप की ओर से सभी अनार्यों जातियों और वर्गों के सहयोग से एक मुहिम चलाने के लिये अलग-अलग ग्रुप तैयार किये जाने की बात भी कही गयी है। यदि आदिवासी इस मुहिम को चलाने में सफल हो पाते हैं तो आने वाले कुछ ही वर्षों में इस देश के मनुवाद के धार्मिक शिकंजे में कैद आदिवासी और अनार्यों की तकदीर में क्रान्तिकारी बदलाव की शुरूआत हो सकती है। 

11. आदिवासियों को तकनीक का उपयोग समझ में आया : विश्‍व आदिवासी दिवस के अवसर पर, देशभर में सबसे बड़ी और उल्लेखनीय बात यह देखने में आयी कि तकनीक के जरिये आदिवासियों द्वारा विचार विनिमय किये जाने की शुरूआत हो गयी है, जो आने वाले भविष्य में आदिवासियों के सभी समूहों को एक दूसरे के करीब लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मुहिम सिद्ध हो सकती है।-09875066111