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Saturday 15 November 2014

प्रथम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी अमर शहीद वीर बिरसा मुण्डा की 140वीं जयंती पर नमन

प्रथम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी अमर शहीद
वीर बिरसा मुण्डा की 140वीं जयंती पर नमन

संक्षिप्त जीवन परिचय :
वीर बिरसा मुण्डा का जन्म 15 नवम्बर, 1872 को खुट्टी के चकलेद गॉव में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा मिहानरी विद्यालय में हुई थी। 1899 में इन्होंने उलगुलान आंदोलन छेड़ा, जिसे सामंतों और अंग्रेजों ने मिलकर दबा दिया और 3 फरवरी, 1900 को उन्हें गिरफ्तार कर जेल में दाल लिया गया। अंतत: 5 जून 1900 को रांची के कारागार में ही उनकी हत्या कर दी गयी जिसे हैजा के कारन हुई मृत्यु कहकर प्रचारित किया गया।

जनजातीय विद्रोह :

-जनजातीय विद्रोह में सबसे संगठित एवं विस्तृत विद्रोह 1895 ई. से 1901 ई. के बीच मुण्डा विद्रोह था, जिसका नेतृत्व आदिवासी वीर बिरसा मुण्डा ने किया था।

-वीर बिरसा मुण्डा का जन्म 1875 ई. में रांची के तमार थाना के अन्तर्गत चालकन्द गाँव में हुआ था। उसने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी।

-वीर बिरसा मुण्डा ने, मुण्डा विद्रोह नाम से प्रसिद्ध विद्रोह पारम्परिक मनुवादी सामंतशाही एकाधिकारवादी भू-व्यवस्था के खिलाफ आदिवासियों को जमींदारी हक प्रदान करने की व्यवस्था में परिवर्तन हेतु सामजिक-धार्मिक-राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप प्रदान किया।

-वीर बिरसा मुण्डा को स्थानीय भाषा में उल्गुहान (महान विद्रोही) कहा गया है। जिन्होंने धर्म के नाम पर अन्ध विश्वास पैदा करने वाली मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ आदिवासियों को एकजुट किया और एकेश्वरवाद का संदेश दिया।   

-वीर बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया का सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया। इसलिए उन्होंने निजी जीवन में नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एकेश्‍वरवाद का उपदेश दिया।

-वीर बिरसा मुण्डा ने स्थानीय सामंतों के मार्फ़त संचालित ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सामंतों के मार्फ़त सरकार को लगान न देने का आदेश दिया।

-नाइंसाफी से विरुद्ध संघर्षरत वीर बिरसा मुण्डा की बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर, कुछ धोखेबाज आदिवासियों के सहयोग से सामंतों और अंग्रेजों ने  उनको 1900 ई. गिरफ्तार कर, जेल में डाल दिया जहाँ। जहाँ  हैजा की बीमारी से उनकी मृत्यु होना प्रचारित किया गया। जबकि हकीकत में मनुवादियों और अंग्रेजों ने सामूहिक षड्यंत्र रचकर बिरसा को जेल में मार डाला।

प्रतिज्ञा करें :
आज उनकी 140वीं जयंति है।
इस अवसर पर हम सभी आदिवासी और
वीर बिरसा के जीवन संघर्ष को जानने और
मान्यता प्रदान करने वाले सभी भारतवासी
प्रथम आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और
अमर शहीद वीर बिरसा मुंडा के अन्याय के खिलाफ किये गए संघर्ष को नमन करते हैं।
और अमर शहीद वीर बिरसा मुंडा के जीवन से प्रेरणा लेते हुए
हम अपनी-अपनी सामूहिक सामाजिक जिम्मेदारी मानते गए
सच्चे मन से स्वेच्छा प्रतिज्ञा करें कि-
  • 01-हम सभी आदिवासी किसी के अन्याय और भेदभाव को नहीं सहेंगे।
  • 02-हम सभी आदिवासी एक दूसरे की पीड़ाओं को साझा करेंगे। 
  • 03-हम सभी आदिवासी संघर्ष करने के लिए हमेशा एकजुट रहेंगे।
  • 04-हम सभी आदिवासी धोखेबाज आदिवासियों से सावधान रहेंगे।
  • 05-हम सभी आदिवासी अन्यायपूर्ण मनुवादी गुलामी से मुक्त होंगे।
  • 06-हम सभी आदिवासी अन्धविश्वास और कुरूतियों को तोड़ेंगे।
  • 07-हम सभी आदिवासी आर्यों के विरूद्ध अनार्यों को एकजुट करेंगे।
  • 08-हम सभी आदिवासी अपने मौलिक और संवैधानिक हकों की रक्षा करेंगे।
  • 09-हम सभी आदिवासी प्रकृति नाशक विकास का विरोध करेंगे।
  • 10-हम सभी आदिवासी सभी सामान भागीदारी के लिए संघर्ष करेंगे।
  • 11-हम सभी आदिवासी धर्म निरपेक्षता का सम्मान और समर्थन करेंगे।
लेखक-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'-098750661111-

Friday 17 October 2014

मीना-मीणा विवाद : राजस्थान सरकार संशोधित अधिसूचना जारी करवाये-डॉ. निरंकुश


मीना-मीणा विवाद : राजस्थान सरकार संशोधित अधिसूचना जारी करवाये-डॉ. निरंकुश

उच्च शिक्षा की उम्मीद लगाये बैठे मीणाओं के युवा वर्ग में राजस्थान सरकार के विरुद्ध भयंकर क्षोभ, आक्रोश और गुस्सा
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मीना-मीणा विवाद की हकीकत
1. काका कालेकर आयोग ने मीणा जाति को ‘मीणा’ नाम से जनजाति में शामिल करने की सिफारिश की।
2. सरकारी काले अंग्रेजों ने ‘मीणा’ जाति को अंग्रेजी में Mina नाम से जनजातियों की सूची में शामिल किया।
3. राजभाषा कानून लागू होने पर सरकारी काले अंग्रेजों ने Mina जाति को हिन्दी में ‘मीना’ अनुवादित किया।
4. सरकारी स्कूलों में इंगलिश टीचर्स ने मीणा विद्यार्थियों को ‘मीना’ को अंग्रेजी में Meena लिखना सिखाया।
5. इन कारणों से हिन्दी में ‘मीणा’ और ‘मीना’ तथा अंग्रेजी में Meena शब्द प्रचलित हुए। इसी वजह से सरकार की ओर से भी मीना, मीणा और Meena नाम से जाति प्रमाण-पत्र जारी किये जाते रहे हैं।
6. सरकारी अमले की गलती को मीणा जाति का धोखा बताकर मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के गठजोड़ द्वारा मीणा जाति को जनजातियों की सूची से बाहर करने का षड़संत्र रचा गया है।
7. इसमें दोष किसका सरकार का या मीणा जाति का?
------------------------------------डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’, प्रमुख-हक रक्षक दल
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जयपुर। हक रक्षक दल के प्रमुख डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ ने राजस्थान की मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर मांग की है कि प्रशासनिक अमले की गलति के कारण मीणा को Mina लिखा गया। जिसे हिन्दी अनुवाद करके मीना बना दिया और और मनुवादियों तथा पूंजिपतियों के इशारे पर अब मीणा जाति को जनजातियों की सूची से हमेशा को बाहर करने का षड़यंत्र रचा गया है। मीणा जाति को समान्य जाति होने का दुष्प्रचार किया जा रहा है। जिसे रोकने के लिये राज्य सरकार तुरन्त केन्द्र सरकार को सिफारिश करे और मीना जाति के सभी समानार्थी नामों सहित संशोधित अधिसूचना जारी करवाई जाये। 

डॉ. निरंकुश ने मुख्यमंत्री को लिखा है कि काका कालेकर आयोग द्वारा ‘मीणा’ जाति को जनजातियों की सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी। लेकिन काले अंग्रेज बाबुओं ने मीणा जाति को अंग्रेजी में Mina अनुवाद करके अंग्रेजी में Mina नाम से जनजाति की सूची में अधिसूचित कर दिया।

डॉ. निरंकुश ने आगे बताया है कि 1976 में राजभाषा अधिनियम लागू होने के बाद Mina नाम से जनजाति सूची में शामिल ‘मीणा’ जाति को सरकारी अनुवादकों ने हिन्दी में ‘मीना’ अनुवादित करके मीना/Mina के नाम से जनजातियों की सूची में फिर से अधिसूचित कर दिया।

इस प्रकार काका कालेकर आयोग द्वारा जिस ‘मीणा’ जाति को जनजातियों की सूची में शामिल करने की सिफारिश की गयी थी, उसे सरकारी अमले ने मीना/Mina जाति बना दिया। जिसके चलते सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर ‘मीणा’ के साथ-साथ ‘मीना’ शब्द भी प्रचलन में आ गया। डॉ. निरंकुश ने लिखा है कि केवल यही नहीं, बल्कि इसी दौरान मीणा जाति के विद्यार्थियों को सरकारी पाठशालाओं में प्रारम्भ से ही सरकारी अध्यापकों द्वारा मीना/मीणा का अंग्रेजी अनुवाद Meena लिखना सिखाया जाता रहा।

डॉ. निरंकुश का कहना है कि ‘मीणा’ जाति को काले अंग्रेजों ने मीणा जाति को क्रमश: Mina, मीना और Meena बना दिया। इसीलिये राजस्थान में किन्हीं अपवादों को छोड़कर सभी मीणाओं को मीना, मीणा, Meena नाम से ही जनजाति के जाति प्रमाण-पत्र बनाये जाते रहे हैं।

डॉ. निरंकुश ने लिखा है कि इतिहास गवाह है कि स्वतन्त्रता संग्राम में बढचढकर भाग लेने वाले मीणा जनजाति के स्वाभिमानी लोग सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से अत्यधिक पिछड़े होने के बावजूद शुरू से ही अत्यधिक लगनशील, परिश्रमी और व्यसनमुक्त जीवन व्यतीत करते रहे हैं। इसी वजह से मीणा प्रतिभाओं ने सरकारी नौकरियॉं हासिल की और अपनी प्रशासनिक, प्रबन्धकीय और तकनीकी बौद्धिक क्षमताओं का हर क्षेत्र में लोहा मनवाया। आरक्षण विरोधी रुग्ण मानसिकता के शिकार और हजारों सालों से व्यवस्था पर काबिज मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों को मीणाओं की ये सांकेतिक प्रगति भी सहन नहीं हुई।

डॉ. निरंकुश का कहना है कि इन्हीं कारणों से मनुवादियों, पूंतिपतियों और काले अंग्रेजों के खुले समर्थन से आरक्षण विरोधी शक्तियों ने मीणाओं की उभरती प्रतिभाओं को आरक्षण से वंचित करने के दुराशय से मीणा जाति का आरक्षण समाप्त करने का सुनियोजित षड़यंत्र रचा है और न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेकर, प्रशासनिक गलतियों की सजा मीना/मीणा जनजाति की वर्तमान युवा पीढी को दी जा रही है।

डॉ. निरंकुश ने मुख्यमंत्री को ध्यान दिलाया है कि सभी तथ्यों के प्रकाश में और राजस्थान की मीणा जाति के बारे में मौलिक जानकारी रखने वाले हर एक राजस्थानी को इस बात का अच्छी तरह से ज्ञान होता है कि जनजातियों की सूची में शामिल मीना/Mina जाति को स्थानीय बोलियों में ‘मीणा/मीना, मैना/मैणा, मेंना/मेंणा, मेना/मेणा’ इत्यादि नामों से बोला और लिखा जाता रहा है। जिसके प्रमाण मीणाओं की वंशावली लिखने वाले जागाओं की पोथियों में भी मौजूद हैं।

डॉ. निरंकुश ने लिखा है कि सब कुछ ज्ञात होते हुए भी राजस्थान सरकार द्वारा ‘मीणा’(Meena) नाम से जाति प्रमाण-पत्र जारी नहीं किये जाने और राज्य सरकार द्वारा मीना/मीणा/Meena/Mina जाति के लोगों को पूर्व में मीणा/Meena नाम से बनाये जा चुके जाति प्रमाण-पत्रों को ‘मीना’ ;(Mina) नाम से सुधार नहीं करने के मनमाने आदेश जारी किये जा चुके हैं। जिससे मीणा जनजाति की उभरती युवा प्रतिभाओं को आरक्षण से वंचित करने का मनुवादियों, पूंतिपतियों और काले अंग्रेजों का षड़यंत्र सफल होता दिख रहा है। जिसके कारण शांति और सौहार्द के लिये ख्याति प्राप्त राजस्थान की आदिवासी मीना/मीणा/Meena/Mina जनजाति के लोगों में, विशेषकर नौकरी और उच्च शिक्षा की उम्मीद लगाये बैठे युवा वर्ग में सरकार के निर्णय के विरुद्ध भयंकर क्षोभ, आक्रोश और गुस्सा उत्पन्न हो रहा है। जो किसी भी लोकप्रिय और लोकतांत्रिक सरकार के लिये चिन्ताजनक है।

पत्र के अन्त में डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ ने लिखा है कि ‘हक रक्षक दल’ के अजा, अजजा, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग के लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और सदस्यों की ओर से राजस्थान सरकार को तीन सुझाव प्रस्तुत हैं-
प्रथम-राज्य सरकार की ओर से जारी अलोकतांत्रिक आदेश को जनहित और मीणा जनजाति के उत्थान हेतु तुरन्त वापस लिया जावे।
द्वितीय-मीणा जाति को सामान्य जाति बताकर मीणा जाति के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही की जावे। और
तृतीय-राजस्थान सरकार की ओर से केन्द्र सरकार को अविलम्ब निम्न सिफारिश की जावे-
‘‘जनजातियों की सूची में क्रम 9 पर मीना/डपदं जाति को ‘मीणा/मीना/Meena/Mina, मैना/मैणा/Maina, मेंना/मेंणा/Menna, मेना/मेणा/Mena’ जाति के नाम से शामिल करके संशोधित अधिसूचना जारी की जावे।’’

डॉ. निरंकुश ने अपने पत्र में आगाह करते हुए आशा व्यक्त की है कि लोक कल्याण और सामाजिक न्याय की संवैधानिक अवधारणा के साथ-साथ, आगामी दीपावली के त्यौहार को ध्यान में रखते हुए सुझाये गये कदम उठाकर राज्य सरकार राजस्थान में न्यायप्रिय और लोकप्रिय सरकार संचालित होने का परिचय देगी। स्रोत : प्रेसपालिका।

Monday 13 October 2014

समाज सेवकों के वेश में भावी मनुवादी जन प्रतिनिधि तैयार हो रहे हैं?


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

राजस्थान सरकार की पूर्ववर्ती कांग्रेसी और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकार के प्राश्रय से राजस्थान में 'मीणा' जनजाति को आरक्षित वर्ग में से बाहर निकालने के दुराशय से एक सुनियोजित षड़यंत्र चल रहा है। जिसके तहत 'मीणा' जनजाति के बारे में भ्रम फैलाया जा रहा है की 'मीणा' और 'मीना' दो भिन्न जातियां हैं। 'मीना' को जनजाति और 'मीणा' को सामान्य जाति बताया जा रहा है। जिसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि शुरू में जारी अधिसूचना में एक सरकारी बाबू ने 'मीणा' जाती को अंग्रेजी में Mina लिख दिया। जिसे बाद में हिन्दी अनुवादक ने ‘मीना’ लिख दिया। इसके बाद से सरकारी बाबू सरकारी रिकार्ड में मीणा जनजाति को समानार्थी और पर्याय के रूप में (Meena/Mina) (मीणा/मीना) लिखते आये हैं। राज्य सरकार के सक्षम प्राधिकारियों द्वारा 'मीणा' और 'मीना' दोनों नामों से जनजाति के जाति प्रमाण पत्र भी 'मीणा' जाति के लोगों को शुरू से जारी किये जाते रहे हैं। अनेक ऐसे भी उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जहॉं पर एक ही परिवार में बेटा का 'मीणा' और बाप का 'मीना' नाम से जनजाति प्रमाण पात्र जारी किये हुआ है।


इसके उपरांत भी मनुवादियों, पूंजीपतियों और काले अंग्रेजों द्वारा आरक्षित वर्गों के विरुद्ध संचालित 'समानता मंच' के कागजी विरोध को आधार बनाकर और समानता मंच द्वारा किये जा रहे न्यायिक दुरूपयोग के चलते मनुवादी राजस्थान सरकार ने आदेश जारी कर दिये हैं कि यद्यपि अभी तक 'मीणा' और 'मीना' दोनों नामों से 'मीणा' जाति को जनजाति प्रमाण-पत्र जारी किये जाते रहे हैं, लेकिन भविष्य में सक्षम प्राधिकारी  ‘मीणा’ जाति को जनजाति के प्रमाण पत्र जारी नहीं करें और जिनको पूर्व में 'मीणा' जन जाति के प्रमाण-पत्र जारी किये गये हैं, उनके भी 'मीना' नाम से जनजाति प्रमाण-पत्र जारी नहीं किये जावें। आदेशें में यह भी कहा गया है कि इन आदेशों को उल्लंघन करने पर अनुशासनिक कार्यवाही की जायेगी।

यहॉं स्वाभाविक रूप से यह सवाल भी उठता है कि यदि ‘मीना’ जाति ही जनजाति है तो 'मीना' जाति के लोगों को 'मीणा जनजाति' के प्रमाण-पत्र जारी करने वाले प्राधिकारियों के विरुद्ध राज्य सरकार द्वारा कोई अनुशासनिक कार्यवाही किये बिना इस प्रकार के आदेश कैसे जारी किये जा सकते हैं? विशेषकर तब जबकि 'मीणा' जनजाति के नाम से सरकार की ओर से जारी किये गये जन के जाति प्रमाण-पत्रों के आधार पर हजारों की संख्या में 'मीणा' जनजाति के कर्मचारी और अधिकारी सेवारत हैं। यही नहीं जब पहली बार मीणा जनजाति को जनजातियों की सूची में शामिल किया गया था तो काका कालेकर कमेटी ने अपनी अनुशंसा में हिन्दी में साफ़ तौर पर 'मीणा' लिखा था।

उपरोक्त सरासर किये जा रहे अन्याय और मनमानी के खिलाफ जयपुर में मीणा जाति की और से 12 अक्टूबर, 2014 को सांकेतिक धरने का आयोजन किया गया। जहॉं पर एक बात देखने को मिली कि मीणा समाज के लोग अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ तो खुलकर बोले, लेकिन राजनैतिक बातें करने से कतराते दिखे।

इस बारे में मेरा यह मानना और कहना है कि यह सर्व विदित है की आज के समय में कहने को तो देश संविधान द्वारा संचालित हो रहा है, मगर सच तो ये है कि सब कुछ, बल्कि सारी की सारी व्यवस्था ही राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के शिकंजे में है, राजनेता तथा ब्यूरोक्रेट्स राजनैतिक पार्टियों के कब्जे में हैं। राजनैतिक पार्टियों पर मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों का सम्पूर्ण कब्जा है। मतलब साफ़ है कि सारे देश पर संविधान का नहीं मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों का कब्जा है। जब तक देश मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त नहीं होगा, देश का हर व्यक्ति मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों द्वारा संचालित मनमानी व्यवस्था का गुलाम ही बना रहेगा। 

इस सबके उपरान्त भी 'मीणा' जाति ही नहीं, अकसर सभी समाजों के मंचों पर चिल्ला-चिल्ला कर घोषणा करवाई जाती हैं कि यहां राजनीति के बारे में कोई चर्चा नहीं की जाएगी। केवल इस डर से कि राजनीति की चर्चा करने से ऐसा नहीं हो कि 'मीणा' समाज के राजनेताओं का समर्थन मिलने में किसी प्रकार की दिक्कत पैदा नहीं हो जाये। इसके विपरीत इस बात को भी सभी जानते हैं कि राजनेता अपनी-अपनी पार्टी की जी हुजूरी पहले करते हैं। इसके बाद देश, समाज या अपनी जाति के बारे में सोचते हैं। फिर भी राजनीति के बारे में चर्चा क्यों नहीं होनी ही चाहिए? इस बात का कोई जवाब नहीं दिया जाता है।

ऐसी सोच रखने वालों से मेरा सीधा सवाल है कि राजनीति कोई आपराधिक या घृणित या असंवैधानिक या प्रतिबंधित शब्द तो है नहीं? राजनीति हमारे यहॉं संवैधानिक अवधारणा है। जिससे संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र संचालित हो रहा है। ऐसे में राजनेताओं और राजनीति दोनों की अच्छाइयों और बुराइयों पर खुलकर चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए? यदि चर्चा पर ही पाबंदी रहेगी तो फिर समाज को राजनीतिक दलों और राजनेताओं की असलियत का ज्ञान कैसे होगा? राजनैतिक अज्ञानता के कारण मनुवादियों की धोती धोने वाले और मनुवादियों की जूतियां उठाने वाले लोगों को आरक्षित क्षेत्रों से उम्मीदवार बनाया जाता है! जो समाज की नहीं अपनी पार्टियों की चिंता करते हैं। येन केन प्रकारेण जुटाये जाने वाले अपने वोटों की चिंता करते हैं। ऐसे में विचारणीय विषय यह होना चाहिए कि यदि आम जनता को राजनीति की हकीकत का ज्ञान ही नहीं करवाया जायेगा तो फिर वंचित, शोषित और पिछड़े तबकों के हकों की रक्षा करने वाले सच्चे राजनेताओं का उद्भव (जन्म) कैसे होगा?

12 अक्टूबर, 2014 को जयपुर में आयोजित उक्त मीणा-मीना मुद्दे के विरोध में आयोजित धरने कार्यक्रम का मैं साक्षी रहा। जिसमें मीणा-मीना मुद्दे पर खूब सार्थक और निरर्थक भाषण बाजी भी हुई। दबी जुबान में राजनैतिक बातें भी कही गयी। कभी दबी तो कभी ऊंची आवाज में सरकार को भी ललकारा गया। मनुवादियों द्वारा संचालित आरक्षण विरोधी 'समानता मंच' की बात भी इक्का दुक्का वक्ताओं ने उठायी। जिसे मंच तथा धराना आयोजकों की और से कोई खास तबज्जो नहीं दी। अर्थात 'समानता मंच' के विरोध को समर्थन नहीं मिला। यही नहीं बल्कि सबसे दुखद विषय तो ये रहा कि आरक्षित वर्गों का जो असली दुश्मन है, अर्थात मनुवाद, उसके बारे में एक शब्द भी किसी भी वक्ता ने नहीं बोला। 

अभी तक देखा जाता था कि राजनेता मनुवाद के खिलाफ बोलने से कतराते थे या इस मुद्दे पर चुप रहते थे तो आम लोग कहते थे कि राजनेता वोटों के चक्कर में मनुवाद के खिलाफ नहीं बोलते। मगर मीणा समाज के हकों की बात करने वाले मीणा समाज के कथित समाज सेवक भी इस बारे में केवल चुप ही नहीं दिखे, बल्कि इस मुद्दे से जानबूझकर बचते भी दिखे। मैंने मंच पर अनेकों से इस बारे में निजी तौर पर चर्चा भी की, तो सबने माना कि मनुवाद ही आरक्षण का असली दुश्मन है, मगर बिना कोई ठोस कारण या वजह के सब के सब मनुवाद के खिलाफ बोलने से बचते और डरे-सहमे नजर आये। ऐसे में मेरे मन में दो सवाल उठते हैं-

क्या मीणा समाज के समाज सेवकों को मनुवादियों से डर लगता है?

या

समाज सेवकों के वेश में भावी मनुवादी जन प्रतिनिधि तैयार हो रहे हैं?

Saturday 20 September 2014

आर्य-वैदिक साहित्य में आदिवासियों के पूर्वजों का राक्षस, असुर, दानव, दैत्य आदि के रूप में उल्लेख

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-

सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:।
अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥

उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है। चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। इस कारण आर्यों के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले मूल-भारतवासी असुर (जिन्हें आर्यों द्वारा अदेव कहा गया) कहलाये। जबकि इसके उलट यदि आर्यों द्वारा रचित वेदों में उल्लिखित सन्दर्भों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि आर्यों के आगमन से पूर्व तक यहॉं के मूल निवासियों द्वारा ‘असुर’ शब्द को विशिष्ठ सम्मान सूचक अर्थ में विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था। क्योंकि संस्कृत में असुर को संधि विच्छेद करके ‘असु+र’ दो हिस्सों में विभाजित किया है और ‘असु’ का अर्थ ‘प्राण’ तथा ‘र’ का अर्थ ‘वाला’-‘प्राणवाला’ दर्शाया गया है।

एक अन्य स्थान पर असुनीति का अर्थ प्राणनीति बताया गया है। ॠग्वेद (10.59.56) में भी इसकी पुष्टि की गयी है। इस प्रकार प्रारम्भिक काल में ‘असुर’ का भावार्थ ‘प्राणवान’ और ‘शक्तिशाली’ के रूप में दर्शाया गया है। केवल इतना ही नहीं, बल्कि अनार्यों में असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति को इतना अधिक सम्मान व महत्व प्राप्त था कि उससे प्रभावित होकर शुरू-शुरू में आर्यों द्वारा रचित वेदों में (ॠगवेद में) आर्य-वरुण तथा आर्यों के अन्य कथित देवों के लिये भी ‘असुर’ शब्द का विशेषण के रूप में उपयोग किये जाने का उल्लेख मिलता है। ॠग्वेद के अनुसार असुर विशेषण से सम्मानित व्यक्ति के बारे में यह माना जाता जात था कि वह रहस्यमयी गुणों से युक्त व्यक्ति है।

महाभारत सहित अन्य प्रचलित कथाओं में भी असुरों के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश डालते हुए उन्हें मानवों में श्रेृष्ठ कोटि के विद्याधरों में शामिल किया गया है।

मगर कालान्तर में आर्यों और अनार्यों के मध्य चले संघर्ष में आर्यों की लगातार हार होती गयी और अनार्य जीतते गये। आर्य लगातार अनार्यों के समक्ष अपमानित और पराजित होते गये। इस कुण्ठा के चलते आर्य-सुरों अर्थात सुरा का पान करने वाले आर्यों के दुश्मन के रूप में सुरों के दुश्मनों को ‘असुर’ कहकर सम्बोधित किया गया। आर्यों के कथित देवताओं को ‘सुर’ लिखा गया है और उनकी हॉं में हॉं नहीं मिलाने वाले या उनके दुश्मनों को ‘असुर’ कहा गया। इस प्रकार यहॉं पर आर्यों ने असुर का दूसरा अर्थ यह दिया कि जो सुर (देवता) नहीं है, या जो सुरा (शराब) का सेवन नहीं करता है-वो असुर है।

लेकिन इसके बाद में ब्राह्मणों द्वारा रचित कथित संस्कृत धर्म ग्रंथों में असुर, दैत्य एवं दानव को समानार्थी के रूप में उपयोग किया गया है। जबकि ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में ‘दैत्य’ और ‘दानव’ असुर जाति के दो विभाग थे। क्योंकि असुर जाति के दिति के पुत्र ‘दैत्य’ और दनु के पुत्र ‘दानव’ कहलाये। जो आगे चलकर दैत्य, दैतेय, दनुज, इन्द्रारि, दानव, शुक्रशिष्य, दितिसुत, दूर्वदेव, सुरद्विट्, देवरिपु, देवारि आदि नामों से जाने गये।

जहॉं तक राक्षस शब्द की उत्पत्ति का सवाल है तो आचार्य चुतरसेन द्वारा लिखित महानतम ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति ‘वयं रक्षाम:’ और उसके खण्ड दो में प्रस्तुत किये गये साक्ष्यों पर गौर करें तो आर्यों के आक्रमणों से अपने कबीलों की सुरक्षा के लिये भारत के मूल निवासियों द्वारा हर एक कबीले में बलिष्ठ यौद्धाओं को वहॉं के निवासियों को ‘रक्षकों’ के रूप में नियुक्ति किया गया। ‘रक्षक समूह’ को ‘रक्षक दल’ कहा गया और रक्षकों पर निर्भर अनार्यों की संस्कृति को ‘रक्ष संस्कृति’ का नाम दिया गया। यही रक्ष संस्कृति कालान्तर में आर्यों द्वारा ‘रक्ष संस्कृति’ से ‘राक्षस प्रजाति’ बना दी गयी।

निष्कर्ष : इस प्रकार स्पष्ट है कि आर्यों के आगमन से पूर्व यहॉं के मूल निवासी अनार्यों का भारत के जनपदों (राज्यों) (नीचे टिप्पणी भी पढें) पर सम्पूर्ण स्वामित्व और अधिपत्य था। जिन्होंने व्यापारी बनकर आये और यहीं पर बस गये आर्यों को अनेकों बार युद्धभूमि में धूल चटायी। जिन्हें अपने दुश्मन मानने वाले आर्यों ने बाद में घृणासूचक रूप में दैत्य, दानव, असुर, राक्षस आदि नामों से अपने कथित धर्म ग्रंथों उल्लेखित किया है। जबकि असुर भारत के मूल निवासी थे और वर्तमान में उन्हीं मूलनिवासियों के वंशजों को आदिवासी कहा जाता है।

टिप्पणी : अनार्य जनपदों में मछली के भौगोलिक आकार का एक मतस्य नामक जनपद भी था, जिसके ध्वज में मतस्य अर्थात् मछली अंकित होती थी-मीणा उसी जनपद के वंशज हैं। चालाक आर्यों द्वारा मीणाओं को विष्णू के मतस्य अवतार का वंशज घोषित करके आर्यों में शामिल करने का षड़यंत्र रचा गया और पिछले चार दशकों में जगह-जगह मीन भगवान के मन्दिरों की स्थापना करवा दी। जिससे कि मीणाओं का आदिवासी दर्जा समाप्त करवाया जा सके।
स्रोत : ‘हिन्दू धर्मकोश’, वयं रक्षाम: और अन्य सन्दर्भ।
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’ प्रमुख-हक रक्षक दल
(‘हक रक्षक दल’-अनार्यों के हक की आवाज)

Tuesday 19 August 2014

आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी

सुभाष गाताड़े

किसी अलसुबह अगर मानवद्रोही कारनामे को अंजाम देनेवाले किसी आतंकी का मेसेज आप के मोबाइल पर पहुंचे, जिसमें उस खतरनाक आतंकी का महिमामण्डन करने की और निरपराधों को मारने की अपनी कार्रवाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश दिखाई पड़े, तो आप क्या करेंगे?और यह सिर्फ आप के साथ न हो, आप के जैसे हजारों लोगों को ऐसे मेसेज पहुंचे ?आप पास के पुलिस स्टेशन या अन्य किसी सम्बधित अधिकारियों को सूचित करेंगे कि आतंकी का महिमामण्डन करने के पीछे कौन लोग लगे हैं, इसकी पड़ताल करे।

बीती 30जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या के 66 साल पूरे होने के अवसर पर देश भर में कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा था, उस दिन गांधी के हत्यारे नाथुराम गोडसे की आवाज़ में एक आडियो वाटस अप पर मोबाइल के जरिए लोगों तक पहुंचाया गया। अख़बार के मुताबिक ऐसा मैसेज उन लोगों के मोबाइल तक पहुंच चुका है, जो एक बड़ी पार्टी से ताल्लुक रखते हैं और वही लोग इसे आगे भेज रहे हैं।

मेसेज की अन्तर्वस्तु गोडसे के स्पष्टत: महिमामण्डन की दिख रही थी, जिसमें आज़ादी के आन्दोलन के कर्णधार महात्मा गांधी की हत्या जैसे इन्सान दुश्मन कार्रवाई को औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गयी थी। इतना ही नहीं एक तो इस हत्या के पीछे जो लम्बी चौड़ी साजिश चली थी, उसे भी दफनाने का तथा इस हत्या को देश को बचाने के लिए उठाए गए कदम के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश की गयी थी।

इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि कुछ माह में ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं और देश के कई हिस्सों में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं, केन्द्रीय जांच एजेंसियों को चाहिए कि एक आतंकी को महिमामंडन करने के पीछे कौन ताकतें लगी हैं, इसकी पड़ताल करें और सच्चाई सामने लाए। यह जानना इस सम्बन्धा में भी महत्वपूर्ण है कि देश के कई हिस्सों में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वाले संघ के प्रचारक रहे असीमानन्द ने – जिस पर मुकदमा चल रहा है – अंग्रेजी पत्रिका ‘कारवां’ को दिए अपने साक्षात्कार में यह विस्फोटक खुलासा किया है कि उसकी इस साजिश की जानकारी संगठन के वरिष्ठतम नेता को भी थी।

निश्चित ही यह कोई पहला मौका नहीं है कि पुणे का रहनेवाला आतंकी नाथुराम विनायक गोडसे, जो महात्मा गांधी की हत्या के वक्त हिन्दु महासभा से सम्बध्द था, जिसने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से की थी और जो संघ के प्रथम सुप्रीमो हेडगेवार की यात्राओं के वक्त उनके साथ जाया करता था, उसके महिमामण्डन की कोशिशें सामने आयी हैं। महाराष्ट्र एवं पश्चिमी भारत के कई हिस्सों से 15 नवम्बर के दिन – जिस दिन नाथुराम को फांसी दी गयी थी- हर साल उसका ‘शहादत दिवस’ मनाने के समाचार मिलते रहते हैं। मुंबई एवं पुणे जैसे शहरों में तो नाथुराम गोडसे के ‘सम्मान’ में सार्वजनिक कार्यक्रम भी होते हैं। लोगों को यह भी याद होगा कि वर्ष 2006 के अप्रैल में महाराष्ट्र के नांदेड में बम बनाते मारे गए हिमांशु पानसे और राजीव राजकोंडवार के मामले की तफ्तीश के दौरान ही पुलिस को यह समाचार मिला था कि किस तरह हिन्दुत्ववादी संगठनों के वरिष्ठ नेता उनके सम्पर्क में थे और आतंकियों का यह समूह हर साल ‘नाथुराम हौतात्म्य दिन’ मनाता था। गोडसे का महिमामण्डन करते हुए ‘मी नाथुराम बोलतोय’ शीर्षक से एक नाटक का मंचन भी कई साल से हो रहा है।

स्मृतिलोप के इस समय में जबकि मुल्क की राजनीति में जबरदस्त उथलपुथल के संकेत मिल रहे हैं और दक्षिणपंथी ताकतें सर उठाती दिख रही हैं, यह जरूरी हो जाता है कि इस मसले से जुड़े तथ्य लोगों के सामने नए सिरेसे रखें जाएं तथा यह स्पष्ट किया जाए कि यह किसी सिरफिरे आतंकी की कार्रवाई नहीं थी बल्कि उसके पीछे हिन्दुत्ववादी संगठनों की साजिश थी, जिसके सरगना सावरकर थे।

हर अमनपसन्द एवं न्यायप्रिय व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि महात्मा गांधी की हत्या आजाद भारत की सबसे पहली आतंकी कार्रवाई कही जा सकती है। गांधी हत्या के महज चार दिन बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबन्दी लगानेवाला आदेश जारी हुआ था -जब वल्लभभाई पटेल गृहमंत्री थे – जिसमें लिखा गया था :

संघ के सदस्यों की तरफ से अवांछित यहां तक कि खतरनाक गतिविधियों को अंजाम दिया गया है। यह देखा गया है कि देश के तमाम हिस्सों में संघ के सदस्य हिंसक कार्रवाइयों में – जिनमें आगजनी, डकैती, और हत्याएं शामिल हैं – मुब्तिला रहे हैं और वे अवैधा ढंग से हथियार एवं विस्फोटक भी जमा करते रहे हैं। वे लोगों में पर्चे बांटते देखे गए हैं, और लोगों को यह अपील करते देखे गए हैं कि वह आतंकी पध्दतियों का सहारा लें, हथियार इक्ट्ठा करें, सरकार के खिलाफ असन्तोष पैदा करे

27 फरवरी 1948 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखे अपने ख़त में -जबकि महात्मा गांधी की नाथुराम गोडसे एवं उसके हिन्दुत्ववादी आतंकी गिरोह के हाथों हुई हत्या को तीन सप्ताह हो गए थे – पटेल लिखते हैं : 

"सावरकर के अगुआईवाली हिन्दु महासभा के अतिवादी हिस्से ने ही हत्या के इस षडयंत्र को अंजाम दिया है ..जाहिर है उनकी हत्या का स्वागत संघ और हिन्दु महासभा के लोगों ने किया जो उनके चिन्तन एवं उनकी नीतियों की मुखालिफत करते थे।”

वही पटेल 18 जुलाई 1948 को हिन्दु महासभा के नेता एवं बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सहायता एवं समर्थन से भारतीय जनसंघ की स्थापना करनेवाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी को लिखते हैं :
”..हमारी रिपोर्टें इस बात को पुष्ट करती हैं कि इन दो संगठनों की गतिविधियों के चलते खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चलते, मुल्क में एक ऐसा वातावरण बना जिसमें ऐसी त्रासदी (गांधीजी की हत्या) मुमकिन हो सकी। मेरे मन में इस बात के प्रति तनिक सन्देह नहीं कि इस षडयंत्र में हिन्दु महासभा का अतिवादी हिस्सा शामिल था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियां सरकार एवं राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं। हमारे रिपोर्ट इस बात को पुष्ट करते हैं कि पाबन्दी के बावजूद उनमें कमी नहीं आयी है। दरअसल जैसे जैसे समय बीतता जा रहा है संघ के कार्यकर्ता अधिक दुस्साहसी हो रहे हैं और अधिकाधिक तौर पर तोडफोड/विद्रोही कार्रवाइयों में लगे हैं।
प्रश्न उठता है कि गांधी के हत्यारे अपने इस आपराधिक काम को किस तरह औचित्य प्रदान करते हैं। उनका कहना होता है कि गांधीजी ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य के विचार का समर्थन दिया और इस तरह वह पाकिस्तान के बंटवारे के जिम्मेदार थे, दूसरे, मुसलमानों का ‘अड़ियलपन’ गांधीजी की तुष्टिकरण की नीति का नतीजा था, और तीसरे, पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किए गए आक्रमण के बावजूद, गांधीजी ने सरकार पर दबाव डालने के लिए इस बात के लिए अनशन किया था कि उसके हिस्से का 55 करोड़ रूपए वह लौटा दे।

ऐसा कोईभी व्यक्ति जो उस कालखण्ड से परिचित होगा बता सकता है कि यह सभी आरोप पूर्वाग्रहों से प्रेरित हैं और तथ्यत: गलत हैं। दरअसल, साम्प्रदायिक सद्भाव का विचार, जिसकी हिफाजत गांधी ने ताउम्र की, वह संघ, हिन्दु महासभा के हिन्दु वर्चस्ववादी विश्वदृष्टिकोण के खिलाफ पड़ता था और जबकि हिन्दुत्व ताकतों की निगाह में राष्ट्र एक नस्लीय/धार्मिक गढंत था, गांधी और बाकी राष्ट्रवादियों के लिए वह इलाकाई गढंत था या एक ऐसा इलाका था जिसमें विभिन्न समुदाय, समष्टियां साथ रहती हों।

दुनिया जानती है कि किस तरह हिन्दु अतिवादियों ने महात्मा गांधी की हत्या की योजना बनायी और किस तरह सावरकर एवं संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर को नफरत का वातावरण पैदा करने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसकी परिणति इस हत्या में हुई। सच्चाई यह है कि हिन्दुत्व अतिवादी गांधीजी से जबरदस्त नफरत करते थे, जो इस बात से भी स्पष्ट होता है कि नाथुराम गोडसे की आखरी कोशिश के पहले चार बार उन्होंने गांधी को मारने की कोशिश की थी। (गुजरात के अग्रणी गांधीवादी चुन्नीभाई वैद्य के मुताबिक हिन्दुत्व आतंकियों ने उन्हें मारने की छह बार कोशिशें कीं)।

अगर हम गहराई में जाने का प्रयास करें तो पाते हैं कि उन्हें मारने का पहला प्रयास पुणे में (25 जून 1934) को हुआ जब वह कार्पोरेशन के सभागार में भाषण देने जा रहे थे। उनकी पत्नी कस्तुरबा गांधी उनके साथ थीं। इत्तेफाक से गांधी जिस कार में जा रहे थे, उसमें कोई खराबी आ गयी और उसे पहुंचने में विलम्ब हुआ जबकि उनके काफिले में शामिल अन्य गाडियां सभास्थल पर पहुंचीं जब उन पर बम फेंका गया। इस बम विस्फोट ने कुछ पुलिसवालों एवं आम लोग घायल हुए।

महात्मा गांधी को मारने की दूसरी कोशिश में उनका भविष्य का हत्यारा नाथुराम गोडसे भी शामिल था। गांधी उस वक्त पंचगणी की यात्रा कर रहे थे, जो पुणे पास स्थित एक हिल स्टेशन है (मई 1944) जब एक चार्टर्ड बस में सवार 15-20 युवकों का जत्था वहां पहुंचा। उन्होंने गांधी के खिलाफ दिन भर प्रदर्शन किया, मगर जब गांधी ने उन्हें बात करने के लिए बुलाया वह नहीं आए। शाम के वक्त प्रार्थनासभा में हाथ में खंजर लिए नाथुराम गांधीजी की तरफ भागा, जहां उसे पकड़ लिया गया।

सितम्बर 1944 में जब जिन्ना के साथ गांधी की वार्ता शुरू हुई तब उन्हें मारने की तीसरी कोशिश हुई। जब सेवाग्राम आश्रम से निकलकर गांधी मुंबई जा रहे थे, तब नाथुराम की अगुआई में अतिवादी हिन्दु युवकों ने उन्हें रोकने की कोशिश की। उनका कहना था कि गांधीजी को जिन्ना के साथ वार्ता नहीं चलानी चाहिए। उस वक्त भी नाथुराम के कब्जे से एक खंजर बरामद हुआ था।

गांधीजी को मारने की चौथी कोशिश में (20 जनवरी 1948) लगभग वही समूह शामिल था जिसने अन्तत: 31 जनवरी को उनकी हत्या की। इसमें शामिल था मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, विष्णु करकरे, गोपाल गोडसे, नाथुराम गोडसे और नारायण आपटे। योजना बनी थी कि महात्मा गांधी और हुसैन शहीद सुरहावर्दी पर हमला किया जाए। इस असफल प्रयास में मदनलाल पाहवा ने बिडला भवन स्थित मंच के पीछे की दीवार पर कपड़े में लपेट कर बम रखा था, जहां उन दिनों गांधी रूके थे। बम का धामाका हुआ, मगर कोई दुर्घटना नहीं हुई, और पाहवा पकड़ा गया। समूह में शामिल अन्य लोग जिन्हें बाद के कोलाहल में गांधी पर गोलियां चलानी थीं, वे अचानक डर गए और उन्होंने कुछ नहीं किया।

उन्हें मारने की आखरी कोशिश 30 जनवरी को शाम पांच बज कर 17 मिनट पर हुई जब नाथुराम गोडसे ने उन्हें सामने से आकर तीन गोलियां मारीं। उनकी हत्या में शामिल सभी पकड़े गए, उन पर मुकदमा चला और उन्हें सज़ा हुई। नाथुराम गोडसे एवं नारायण आपटे को सज़ा ए मौत दी गयी, (15 नवम्बर 1949) जबकि अन्य को उमर कैद की सज़ा हुई। इस बात को नोट किया जाना चाहिए कि जवाहरलाल नेहरू तथा गांधी की दो सन्तानों का कहना था कि वे सभी हिन्दुत्ववादी नेताओं के मोहरे मात्रा हैं और उन्होंने सज़ा ए मौत को माफ करने की मांग की। उनका मानना था कि इन हत्यारों को फांसी देना मतलब गांधीजी की विरासत का असम्मान करना होगा जो फांसी की सज़ा के खिलाफ थे। ..

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ नाथुराम गोडसे के सम्बन्धा मसला अभी भी सुलझाया नहीं जा सका है। दरअसल महात्मा गांधी की हत्या की चर्चा जब भी छिड़ती है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े आनुषंगिक संगठन गोडसे और उसके आतंकी गिरोह के बारे में बहुत घालमेलवाला रूख अख्तियार करते हैं। एक तरफ वह इस बात की भी कोशिश करते हैं कि यह दिखाएं कि गांधीजी की हत्या के वक्त उनमें से किसी का संघ से कोई ताल्लुक नहीं था। साथ ही साथ वह इस बात को भी रेखांकित करना नहीं भूलते कि किस तरह गांधीजी के कदमों ने लोगों में निराशा पैदा की थी।…..

नाथुराम गोडसे से करीबी से जुड़े लोग, जो खुद गांधीजी की हत्या की साजिश में शामिल थे, वे इस मसले पर अलग ढंग से सोचते हैं। अपनी किताब ‘Why I Assassinated Mahatma Gandhi (मैंने महात्मा गांधी को क्यों मारा, 1993)’ नाथुराम गोडसे के छोटे भाई गोपाल गोडसे लिखते हैं : ”उसने (नाथुराम) ने अपने बयान में कहा था कि उसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को छोड़ा था। उसने यह बात इस वजह से कही क्योंकि गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी की हत्या के बाद बहुत परेशानी में थे। मगर यह बात सही है कि उसने संघ नहीं छोड़ा था।”.. अंग्रेजी पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ को दिए साक्षात्कार में (जनवरी 28,1994, अरविन्द राजगोपाल) गोपाल गोडसे ने वही बात दोहरायी :

प्रश्न : क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुडे थे

उत्तर : सभी भाई संघ में थे। नाथुराम, दत्तात्रोय, मैं और गोविन्द। आप कह सकते हैं कि हम अपने घर के बजाय संघ में ही पले बढ़े। संघ हमारे लिए दूसरे परिवार की तरह था।

प्रश्न : नाथुराम संघ में ही था ? उसने संघ को नहीं छोड़ा था ?

उत्तर : नाथुराम संघ का बौध्दिक कार्यवाह बना था। उसने अपने बयान में कहा था कि उसने संघ छोड़ा था। उसने यह बात इस वजह से कही क्योंकि गोलवलकर और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गांधी की हत्या के बाद बहुत परेशानी में थे। उसने कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नहीं छोड़ा।.

यह अकारण नहीं कि अपनी किताब ‘गांधी हत्या और मैं’ (सूर्यभारती प्रकाशन, दिल्ली) की शुरूआत में गोपाल गोडसे बताते हैं कि किस तरह फांसी जाने के पहले उन्होंने जहां एक तरफ ‘अखण्ड भारत’ तथा ‘वन्दे मातरम्!’ का नारा लगाया तथा मातृभूमि के नाम पर ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे..’गाया। याद रखें कि यही वह गीत है जो संघ की शाखाओं में प्रमुखता से गाया जाता है।

इस पूरी साजिश में सावरकर की भूमिका पर बाद में विधिवत रौशनी पड़ी। याद रहे गांधी हत्या को लेकर चले मुकदमे में उन्हें सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया था।

मालूम हो कि गांधी हत्या के सोलह साल बाद पुणे में हत्या में शामिल लोगों की रिहाई की खुशी मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। 12 नवम्बर 1964 को आयोजित इस कार्यक्रम में शामिल कुछ वक्ताओं ने कहा कि उन्हें इस हत्या की पहले से जानकारी थी। अख़बार में इस ख़बर के प्रकाशित होने पर जबरदस्त हंगामा मचा और फिर 29 सांसदों के आग्रह तथा जनमत के दबाव के मद्देनज़र तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने एक सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जीवनलाल कपूर की अधयक्षता में एक कमीशन गठित किया।

कपूर आयोग ने हत्या में सावरकर की भूमिका पर नए सिरेसे निगाह डाली। आयोग के सामने सावरकर दो सहयोगी अप्पा कासार – उनका बाडीगार्ड और गजानन विष्णु दामले, उनका सेक्रेटरी भी पेश हुए, जो मूल मुकदमे में बुलाए नहीं गए थे। कासार ने कपूर आयोग को बताया कि कि किस तरह हत्या के चन्द रोज पहले आतंकी गोडसे एवं दामले सावरकर से आकर मिले थे। बिदाई के वक्त सावरकर ने उन्हें एक तरह से आशीर्वाद देते हुए कहा था कि ‘यशस्वी होउन या’ अर्थात कामयाब होकर लौटो। दामले ने बताया कि गोडसे और आपटे को सावरकर के यहा जनवरी मधय में देखा था। न्यायमूति कपूर का निष्कर्ष था ” इन तमाम तथ्यों के मद्देनजर यही बात प्रमाणित होती है कि सावरकर एवं उनके समूह ने ही गांधी हत्या की साजिश रची।’

विडम्बना यही कही जाएगी कि इसके पहले ही सावरकर की मृत्यु हुई थी।(हमसमवेत)

स्त्रोत : आज़ाद भारत का पहला आतंकवादी, By AAWAZ-E-HIND.IN।। ONLINE NEWS & VIEWS CHANNEL - Sat Feb 22, 5:28 pm

मनुवादी मोहरा अन्ना हजारे (देशद्रोही)


अन्ना एंड पार्टी (मशहूर नौटंकी, महाराष्ट्र वालों) का इरादा मनुवाद -ब्राहमणवाद को मजबूत करने का था...जाहिर सी बात है कि जो व्यवस्था किसी व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से संपन्न बनाये रखे, वह व्यक्ति उस व्यवस्था को त्यागना नहीं चाहेगा...मनुवाद या ब्राहमणवाद एक ऐसी ही व्यवस्था है, जिसमें चंद मुट्ठी भर लोग सदियों से लाभान्वित हो रहे हैं...बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के कठोर एवं निरंतर संघर्ष ने बहुजनों को उनका हक़ दिलाने का सफल प्रयास किया...बाबा साहेब के आदर्शों को दलितों ने आगे बढाया और समाज में जागरूकता फैलाई...इसके चलते हाल ही के दशक में शूद्रों (OBC) को भी ब्राहमणवाद कि नीतियाँ समझ आने लगीं और वे साथ जुड़ने लगे...एक तरफ दलितों-शूद्रों की राजनैतिक दावेदारी बढ़ने लगी...तो दूसरी तरफ कई सभाएं और रैलियां होने लगीं, जिनमें दलित (SC,ST), शूद्र (OBC), बौद्ध, मुस्लिम्स ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया...एक बात स्पष्ट होती जा रही थी कि आने वाले समय में ये सभी एक-जुट होकर चुनाव लड़ेंगे...चूँकि इनकी तादात इतनी अधिक है कि ये लोग खुद की सरकार बनाकर, ब्राहमणवाद का खात्मा कर सकते हैं...यह बात सवर्ण भांप चुके थे...सवर्ण समझ गये थे की सत्ता कभी भी उनके हाथों से छिन सकती है...अब सवर्ण एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे, जो की ब्राहमणवाद को बनाये रखे...अन्ना को चेहरा बनाकर, खेल चुरू हो गया...अन्ना एंड पार्टी, ब्राहमणवादी व्यवस्था ले ही आते, जिसमें बहुजनों को कोई भी प्रतिनिधित्व या आरक्षण नहीं था...किन्तु फिर से दलित, बहुजनों की ढाल बन कर सामने खड़ा हो गया, और ख़ुशी इस बात की है कि बहुजनों ने पूरा साथ दिया...अब जो भी लोकपाल आएगा, वह अन्ना एण्ड पार्टी के ब्राहमणवादी लोकपाल से भिन्न लोकपाल होगा, क्यूंकि अब इसमें सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व तय हो गया है और सवर्णों के निहित स्वार्थ धरे के धरे रह गये हैं...!

निष्कर्ष :- सवर्णों का ब्राहमणवादी लोकपाल अपने आप में संविधान के चारों स्तंभों को अपने नियंत्रण में लिए हुए, एक संप्रभु था !
1. अन्ना एण्ड पार्टी (सवर्णों) के ब्राहमणवादी लोकपाल में सीधे तौर पर यह व्यवस्था थी की चाहे सरकार कोई भी हो, उसे लोकपाल से डरकर रहना होगा, लोकपाल जब चाहे प्रधानमंत्री एवं सांसदों को जांच के शिकंजे में कस लेगा !
2. न्यायपालिका लोकपाल के अधीन होने से लोकपाल न्यायिक कार्यों में हस्तक्षेप कर सकेगा और न्याय-प्रक्रिया में लोकपाल की हिस्सेदारी तय हो जाएगी !
3. लोकपाल की खुद की एक जांच एजेंसी होगी, जिसके पास लाखों कर्मचारी होंगे, जिससे की लोकपाल खुद में ही एक सशक्त प्रशासन होगा, जो कि बाकी के सभी प्रशासनिक क्षेत्रों (विभागों) को सीधे तौर पर अपने नियंत्रण में रखेगा !
4. मीडिया, व्यापार एवं एनजीओ लोकपाल से बाहर रहेंगे, वैसे भी इन क्षेत्रों में आरक्षण नहीं है...अतः यहाँ बहुजनों का प्रतिनिधित्व बहुत ही कमजोर अथवा न्यून है...इस प्रतिनिधित्व को मजबूत करने के लिए इन क्षेत्रों में भी आरक्षण अति-आवश्यक है, जिसकी वर्तमान में प्रबल मांग उठ रही है !

कुल मिलाकर कहने का मतलब है कि...अब अगर दलित-शूद्र-बौध-मुस्लिम एक होकर चुनाव जीत लेते हैं और अपनी सरकार बना लेते हैं, तो भी सवर्णों का ही वर्चस्व कायम होने वाला था...क्यूंकि इनके लोकपाल में बहुजनों के लिए आरक्षण या प्रतिनिधित्व जैसी कोई बात नहीं थी, ये पूर्व की ही तरह एकछत्र राज करते...!


ब्राहमणवादी लोकपाल की मुख्य मांगे :-
1. सरकार, "प्रधान मंत्री" को लोकपाल के दायरे में लाये !
2. सरकार, "न्यायपालिका" को लोकपाल के दायरे में लाए !
3. सरकार, "सांसदों" को लोकपाल के दायरे में लाये !
4. सरकार, अपना सरकारी-बिल वापस ले !
5. तीस अगस्त (30 अगस्त) तक "अन्ना का जन-लोकपाल-बिल" संसद में पास होना ही चाहिए !
6. बिल को "स्टैंडिंग-कमेटी" में नहीं भेजा जाए !
7. लोकपाल की नियुक्ति-कमेटी में "सरकारी-हस्तक्षेप" न्यूनतम हो !
8. जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा नियम 184 के तहत करा कर उसके पक्ष और विपक्ष में बाकायदा वोटिंग करायी जाए !

आइये देखते हैं ब्राहमणवादी लोकपाल से जुड़े कुछ पहलू :-
1. यह मूवमेंट जिस समय चलाया गया तब, सरकार के गिरने की पूरी संभावनाएं थी...अन्ना एंड पार्टी (सवर्ण), जो लोकपाल (ऑंबडज़्मन) लाना चाहते हैं, वो प्रासंगिक ही नहीं है...मात्र राजनीतिक षड्यंत्र है...कुछ बड़ा गड़बड़-घोटाला है, जिसकी तरफ से करोड़ो लोगों का ध्यान हटाया जा रहा है...वर्तमान मुद्दे...कॉमन वेल्थ, 2 G स्पेक्ट्रम, टाटा-राडिया टेप-कांड, परमाणु दायित्व...इत्यादि !
2. वर्तमान सरकार ने कई औधोगिक घरानों के फोन, टेप करवाए थे...जिसमें टाटा-राडीया फोन-टेप-कांड काफ़ी चर्चा में रहा...अब अन्ना एण्ड कम्पनी (कॉर्पोरेट जगत एवं सिविल सोसाइटी) लोकपाल को फोन टेपिंग की शक्ति देने में लगे हैं...फोन टेप होने से एक तो ब्लैक-मेलिंग का ख़तरा और दूसरा ख़ुफ़िया खबरों एवं सूचनाओं के लीक होने या दुश्मनों को बेचे जाने का डर...!
3. अन्ना एण्ड कंपनी (कॉर्पोरेट जगत एवं सिविल सोसाइटी) के लोग जो कि NGOs चलाते हैं...भारत की ग़रीबी एवं लाचारी को दूर करने के लिए मदद के रूप में मिले विदेशी धन तक को हड़प जाते हैं...और ये तो सभी जानते हैं कि NGOs के मार्फत काले धन को सफेद किए जाने का रिवाज़ है...! अब सवर्ण चाहते हैं कि गवर्नमेंट फॅंडेड NGOs ही लोकपाल के दायरे में हो...भला ऐसा क्यूँ...??? जबकि सब जानते हैं कि NGOs में कितना भ्रष्टाचार है !
4. अन्ना एण्ड कंपनी (सवर्ण), व्यापार जगत और मीडिया जगत को भी लोकपाल से बाहर रखना चाहती है !
5. अन्ना एक कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति है जो की कानून की बारीकियों एवं पेचीदगियों को नहीं जानता और तो और किसी भी कानून या विधेयक या ड्राफ्टिंग की तकनिकी पहलुओं को भी नहीं जानता...और हम यह भी जानते हैं हैं की फ़ौज की नौकरी करने वाले व्यक्ति को इस प्रकार ट्रेनिंग दी जाती है की उसका IQ स्तर निम्न हो जाता है...अतः अन्ना सिर्फ और सिर्फ एक मोहरा है...इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं ! लेखक : Satyendra Humanist 
स्त्रोत : आफ़ताब फाजिल ब्लॉग, 26.12.2011

जाति.धर्म का मनुवादी तराजू-शिव बालक मिश्र प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन!

जाति.धर्म का मनुवादी तराजू

आधुनिक विज्ञान के युग में हम गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार या आतंकवाद के अध्ययन के लिए घिसे-पिटे मनुवादी तराजू पर ही निर्भर हैं। 

आशीष नन्दी जो एक साहित्यकार और समाजसेवी हैंए उन्होंने जयपुर के साहित्य सम्मेलन में विद्वानों के बीच में कह दिया कि अनुसूचित और पिछड़ी जातियों में अधिक भ्रष्टाचार है। मुझे नहीं मालूम कि उनके पास ऐसा कहने का कोई आधारए कोई आंकड़े हैं या नहींए उन्होंने कोई सर्वेक्षण अथवा अध्ययन किया है अथवा नहीं। यदि नहीं, तो यह बात किसी बुद्धिजीवी के मुंह से नहीं निकलनी चाहिए थी और देश के बुद्धिजीवियों को बोलने की आजादी के नाम पर उनका समर्थन नहीं करना चाहिए। उन्होंने माफी मांगकर इस अध्याय को समाप्त करने की कोशिश की थी, परंतु विवाद थमता नहीं दिखता।
शिव बालक मिश्र
प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन

इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में सामाजिक आंकलन के लिए केवल जाति या फिर धर्म का ही तराजू प्रचलित है। गरीबीए अशिक्षा, पिछड़ापन, भ्रष्टाचार और आतंकवाद नापने के लिए जाति-धर्म का घिसा पिटा मनुवादी तराजू ही सरकार और समाज द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। ऐसी परिस्थिति में यदि आशीष नन्दी भ्रष्टाचार को और रामविलास पासवान गरीबी और पिछड़ेपन को जाति के तराजू से नापते हैं या दिग्विजय सिंह आतंकवाद को धर्म के तराजू पर तौलते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सच यह है कि दूसरा तराजू उनके पास है ही नहीं।

सरकारी सोच पहले ही इस निर्णय पर पहुंच चुकी है कि अनुसूचित और जनजातियां सबसे गरीब हैं। इसके बावजूद उनके बीच से एक से बढ़कर एक विद्वान, पराक्रमी और शूरवीर निकले हैं जिनकी जानकारी अब बनवाए गए स्मारकों के माध्यम से हमें हो रही है। हमारे राजनेताओं को सामाजिक अध्ययन के लिए महर्षि मनु द्वारा बनाए गए जाति आधारित मापनी के बाहर कुछ नहीं दिखाई देता। अशिक्षाए गरीबी और पिछड़ेपन का अध्ययन करते समय वे भूल जाते हैं कि गरीबीए अमीरी और पिछड़ापन स्थायी नहीं होतेए सुदामा हर जाति और धर्म में पाए जाते हैं।

केवल सरकार ही नहींए बल्कि मंडल कमीशन ने भी पाया कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों के अतिरिक्त अन्य कुछ जातियां हैं जो पिछड़ी हैं। पैमाना जाति का ही रहा और अन्य पिछड़ी जातियों को जाति आधारित सुविधाएं देना आरंभ हो गया। अनेकों जातियां आंदोलन करने लगीं कि हमारी जाति भी पिछड़ी है, हमें भी आरक्षण चाहिए। जाति आधारित सम्मेलन होने लगेए चुनाव के लिए जाति आधारित टिकट मिलने लगे, इसी आधार पर मंत्री और अधिकारी बनने लगे। कितने नादान हैं ये लोग जो इस रास्ते पर चलकर जातिभेद मिटाना चाहते हैं। कम से कम आशीष नन्दी को यह भूल तो नहीं करनी चाहिए थी। यदि वह बुद्धिजीवी हैं तो उन्हें जाति से हटकर कोई सेक्युलर पैमाना ढूंढऩा ही चाहिए था।

जाति के अलावा जो दूसरा पैमाना खोजा गया वह तो और भी घातक नजर आता है। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट आई जिसने बताया कि देश का मुस्लिम समाज तो अनुसूचित लोगों से भी पिछड़ा है। इस बात से कौन इनकार करेगा कि इस्लाम धर्म के मानने वालों ने भारत पर 1000 साल तक हुकूमत की है, कोई उन्हें शिक्षा और नौकरी से वंचित नहीं कर सकता था जिस प्रकार दलितों को किया गया था। मुस्लिम समाज क्योंए कब और कैसे पिछड़ गया? फि र से धर्म आधारित बंटवारा आरंभ हो गया। बात यहीं पर रुकी नहीं।

हमारे देश के गृहमंत्री ने कह दिया कि हिन्दू आतंकवाद बढ़़ रहा है अर्थात आतंकवाद को भी धर्म और जाति के तराजू से ही तौलना होगा। कुछ लोगों ने कहा आतंकवाद भगवा रंग का होता है। इसके पहले इस्लामिक आतंकवाद की भी बातें होती रही हैं। हम अपने को सेक्युलर कहते हुए नहीं थकते परन्तु गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ापन और आतंकवाद यहां तक कि भ्रष्टाचार तक को नापने के लिए सेक्युलर पैमाना नहीं ढूंढ पाते, वहीं पुराने मनु के बनाए तराजू पर सब कुछ तौलना पड़ता है।

जाति और धर्म का तराजू गाँव और शहर दोनों में एक समान चलता है। गाँव की पंचायतों के चुनाव जातीय आधार पर होते हैं इसलिए हमारा समाज जातीय आधार पर लामबंद होता जा रहा है। जातियों के बीच आज जो तनाव है वह गुलाम भारत में भी नहीं था। अब जातियों के आधार पर सम्मेलन होते हैं और जातीय अभिमान जगाते हुए नारे लगते हैं, आन्दोलन होते हैं। ऐसे में आशीष नन्दी जैसे लोगों को युगों से चली आ रही जातियां ही दिखाई देंगी। परन्तु वैज्ञानिक आधार पर किया गया अध्ययन तो ऑब्जेक्टिव (तथ्यात्मक)) और क्वांटीफाइड (गणनाधारित) होना चाहिए, यह कोई आस्था का विषय नहीं है।

पिछड़ापनए गरीबी और अशिक्षा का सीधा संबन्ध किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों और सुविधाओं से होता है। सुविधाएं मिलने पर सभी वर्गों के लोग शांति से विकास करते हैं। भ्रष्टाचार को जातियों से और आतंकवाद को धर्मों से जोडऩा ठीक नहीं। वास्तव में जाति और धर्म के आधार पर आंकड़े एकत्र करने के बजाय क्षेत्रों को इकाई मानकर अध्ययन होने चाहिए। जाति और धर्म से ध्यान हटकर क्षेत्रीय विकास पर चला जाएगा और यह जातीय संघर्ष और धार्मिक उन्माद से बचने का एक तरीका हो सकता है। स्त्रोत : -शिव बालक मिश्र, प्रधान संपादक गॉँव कनेक्शन। ०५-०२-१३